Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 54
________________ 47 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण ही है । हम जब चाहें गेहूँ से कंकरों को निकालकर बाहर कर सकते हैं । (यह निश्चयाभासी एकान्ती की मान्यता यहाँ प्रकट है ।) उत्तर - आत्मा का और कर्मों का गेहूँ और कंकरों के समान मेल नहीं हैं क्योंकि आत्मा के प्रदेश गेहूँ की तरह भिन्न नहीं होते हैं । आत्मा तो असंख्यात प्रदेशों का एक अखण्ड द्रव्य है वह किसी तूम्बी के ऊपर मिट्टी की तरह आत्मा के ऊपर कर्मपुंज से लिपट रहा हो ऐसा नहीं है । ......... आत्मपरिणामों से कर्मों का और कर्मों के प्रभाव से आत्मा का प्रचलन (परिणमन, विकारीभाव) रहता है । मतलब यह है कि जैसे अग्नि के सम्पर्क से मोम अपने घनत्व को त्यागकर पिघल जाया करता है वैसे ही स्त्री-पुत्रादि बाह्य पदार्थों के सम्पर्क में मोहनीयादि कर्मों के उदय को पाकर आत्मा भी रागद्वेषादि विकारों के रूप में परिणत हो जाया करता है ।" (अशुद्ध होता है)। आचार्यश्री ने जिस भाव को यहाँ प्रकट किया है उसके समर्थन में पञ्चाध्यायी का यह श्लोक प्रस्तुत करना अभीष्ट होगा। जीवश्चेत् सर्वतः शुद्धो मोक्षादेशो निरर्थकः । नेष्टमिष्टत्वमत्रापि तदर्थं वा वृथा श्रमः ॥ - यदि जीव सर्वथा शुद्ध है तो मोक्ष का उपदेश वृथा है (मोक्ष को उपदेश तो शुद्ध होने के लिए होता है) किन्तु मोक्ष के इष्टत्व को नकारना तो अनिष्ट ही है एवं मोक्षप्राप्ति के लिए श्रम करना भी बेकार है । सांराश यह है आत्म-शुद्धि हेतु शुभोपयोग (सरागचारित्र) और शुद्धोपयोग (वीतरागचारित्र) दोनों ही उपयोगी हैं । शुभोपयोग परम्परा मोक्षमार्ग है और शुद्धोपयोग साक्षात् रूप से । शुभोपयोग साधन है शुद्धोपयोग साध्य । बिना शुभोपयोग के कभी भी शुद्धोपयोग नहीं होता । जैसे कली पुष्प के रूप में परिणत हो जाती है एवंविध ही शुभोपयोग भी शुद्धोपयोग रूप में परिणत हो जाता है । शुद्धोपयोग की उपलब्धि सुविदिदिपयत्तसुत्तो' एवं 'शुक्वेचाद्येपूर्वविदः' के अनुसार श्रुतकेवली को होती है । ज्ञातव्य है कि शुद्धोपयोग होने पर शुक्लध्यान अवश्य होता है । 23. आत्मानुभव का सद्भाव प्रस्तुत विषय निश्चयैकान्त के प्रचार के परिप्रेक्ष्य में विवाद का बना हुआ है क्योंकि निश्चयनय के पक्षपाती पहले निश्चय बाद में व्यवहार मानकर चौथे गुणस्थान में मात्र सम्यग्दर्शन के सद्भाव के आत्मानुभव की कल्पना कर 'इतोभ्रष्टा ततोभ्रष्टाः' हो रहे हैं। पूआ. ज्ञानसागरजी महाराज ने इस विषय को भ्रान्ति-निवारणार्थ प्रवचनसार प्रवचन में पृष्ठ 18 पर उठाया है, देखिए - "शंका-कोई-कोई विद्वान् कहते हैं कि द्रव्य श्रुतकेवली तो नहीं किन्तु भाव श्रुतकेवली तो पशु भी हो जाता है क्योंकि तिर्यञ्च के भी पञ्चम गुणस्थान होना बताया है जहाँ सम्यग्दर्शन आवश्यक है जो आत्मानुभवपूर्वक होता है और आत्मानुभव बिना श्रुतज्ञान के हो नहीं सकता। क्या यह ठीक है?

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