Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ 46 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण दुनियादारी की झंझटवाले कौटुम्बिक जीवन में फंसे रहकर कभी नहीं हो सकता किन्तु इससे मुक्त होकर निर्द्वन्द्व दशा अपनाने से ही हो सकता है । " यहाँ ध्यान देने योग्य आ. कुन्दकुन्द के प्रवचनसार की मूल गाथा प्रस्तुत करना संगत प्रतीत होता है - सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगतरागो 1 समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो ति ॥14॥ - इसमें 'समणो सुद्धोवओगो' अर्थात् विशिष्ट मुनि ही शुद्धोपयोगी है यह स्पष्ट है। आ. जयसेन ने प्रवचनसार टीका में गृहस्थ के शुद्धोपयोग की भावना (गाथा 248 ) में लिखी है । यह भावना शुभोपयोग ही है । यह भी गौणरूप से उल्लिखित किया है । शुद्धोपयोग की भावना की मुनि के मुख्यता है । वर्तमान काल में तो साधु के भावना ही पाई जाती है क्योंकि श्रेणी आरोहण का अभाव है । जब साधु के लिए भी इस भावना रूप शुभोपयोग तथा उपर्युक्त बाह्य सरागचारित्र रूप शुभोपयोग उपादेय है तो गृहस्थ के लिए तो शुभोपयोग उपादेय ही है हेय नहीं । वह तो अपरमभाव में ही स्थित है और कुन्दकुन्द ने अपरमभाव में स्थित जीवों के लिए व्यवहार नय, जिसकी अपेक्षा शुभोपयोग उपादेय है का उपदेश दिया है । "ऊपर ज्ञानसागरजी महाराज ने शुभोपयोग को भी धर्म संज्ञा दी है वह समीचीन ही है । यद्यपि उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की गाथा की व्याख्या की है तथापि स्पष्ट रूप से शुभभाव को धर्मरूप में घोषित करनेवाली एक गाथा को उल्लिखित करने का लोभसंवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ, दृष्टव्य है . भावं तिविह पयारं सुहासुहं च सुद्धमेव णादव्वं । असुहं अट्टरउद्दं सुहधम्मं जिणवरिंदेहिं ॥भावपाहुड 76॥ - भाव तीन प्रकार के हैं शुभ, अशुभ और शुद्ध । उनमें अशुभ तो आर्त्तरौद्र (पाप) है और शुभभाव धर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । आशय यह है कि शुभोपयोग भी आत्मा को शुद्ध करने का उपाय है । पू. महाराजजी ने पृष्ठ 8 पर शंका उठाकर एक स्पष्टीकरण दिया है । "शंका क्या आत्मा वास्तव में अशुद्ध है हम तो पूर्ण सर्वथा शुद्ध समझते हैं । उत्तर • वास्तव शब्द का मतलब होता है केवलपन । केवल (अकेलापन) की अवस्था - में विकार नहीं हो सकता है । परन्तु इस आत्मा के साथ में अनादिकाल से कर्मपुद्गल परमाणुओं का मेल हो रहा है अतः इस संसारी जीव में विकार है । शंका आत्मा के साथ कर्मों का मेल है तो भी क्या हुआ । कर्मों का एक परमाणु आत्मरूप और आत्मा का एक प्रदेश भी कर्म परमाणु रूप नहीं हुआ है फिर आत्मा का क्या बिगड़ गया । आत्मा के प्रदेश भिन्न हैं और कर्म परमाणु भिन्न हैं । जैसे कुछ गेहूँ हैं इनमें कुछ कंकर मिला देने से ये कंकरदार हो गये फिर भी गेहूँ गेहूँ ही हैं कंकर कंकर -

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106