Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 71
________________ 64 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण फेराफेर-फेराफेर लगी रहती है उसे सन्तोष नहीं होता, थोड़ा जल भी छींटती है, कोलाहल भी उत्पन्न करती है उसी प्रकार पू. ज्ञानसागरजी महाराज के नय विवेचन को हम भी यहाँ मथामथ लगे हुए हैं, अमृत ही अमृत छलक रहा है, झलक रहा है । थोड़ा इधर-उधर का सन्दर्भ जल भी छींट रहे हैं परन्तु सन्तोष नहीं हो रहा है और झलकते हुए अमृत को आखिर प्राप्त तो करना ही है । निरूपण की विशेषताओं का यह छलकाव मानों स्वयं व्यवहार नय का रूपक ही प्रकट हलचल (क्रिया) रूप में है तथा झलकाव (निश्चल तत्त्व, अन्तरंग चमक) मानों निश्चय नय के रूप में प्रस्तुत है । उनके निरूपण में दोनों ही समान अधिकार प्राप्त हैं । कहा भी है "उभयनयायत्ता हि पारमेश्वरी देशना" । उनके नय दर्पण में जितना झाकेंगे उतना ही आनन्दामृत में विभोर होने पर सौभाग्य प्राप्त होगा । जितना उनके कथन की गहराइयों में उतरेंगे उतना ही रत्न संचय करने में समर्थ होंगे । जैसे चटनी को जितना बांटते जायेंगे (पीसते जायेंगे) उतना ही स्वाद प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त हम न तो सूक्ष्म रुचि हैं, न मध्यम रुचि, हम तो विस्तार रुचि वक्ता, श्रोता हैं, अतः हमें पिष्ट-पेषण का भय नहीं है न लज्जा ही है । गुरुओं का प्रसाद प्राप्त है । पू. ज्ञानसागरजी महाराज हमें स्वर्ग से आशीर्वाद और प्रोत्साहन दे ही रहे हैं क्योंकि हम उनके ही काम को अग्रसर कर रहे हैं, हम तो पीछे हैं हमारे नायक तो पू. मुनिराज सुधासागरजी महाराज हैं । उन्हीं का संबल ही मार्गदर्शक है । ऊपर हमने व्यवहार-निश्चय की भूतार्थता-अभूतार्थता की चर्चा की थी। इसी विषय को ग्राह्यता के परिवेश में आ. कुन्दकुन्द की गाथा नं. 19 का विवेकोदय में आ. श्री ज्ञानसागरजी महाराज का पद्यानुवाद एवं भाषा व्याख्यान रूप निरूपण दृष्टव्य है । इसमें अंत में सारांश रूप में दोनों नयों का विषय तादात्म्य लिए हुए कथंञ्चित् अभिन्न कहा गया है । दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णिवि आप्पाणं चेव णिच्छयदो 9॥ - समयप्राभृत पद्यानुवाद - "आपा पर का भेद जहाँ तक भी विचार में बना रहे । सम्यग्दर्शन बोध वृत्त के पालन में मन सना रहे ॥ यह तो है व्यवहार और निश्चय नय का है यह बाना । और सभी को भुला आपका अपने में ही लग जाना ॥16॥ "मुमुक्षु को चाहिए कि वह द्वैतभाव से अद्वैत आत्मभाव पर आने की कोशिश अवश्य करें, परन्तु जब तक कि अपने उपयोग में आपा पर का कुछ जरा-सा भी भेद-भाव विद्यमान हो यह मेरा और यह पराया अथवा यह मैं और यह पर इस प्रकार अपने आपके साथ-साथ पर का भी भान हो रहा हो उसे पूरी तौर से भुला न पाया हो तब तक निरन्तर पूरी कोशिश के साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र भेदरूप रत्नत्रय (व्यवहार-रत्नत्रय) को अङ्गीकार किये ही रहना चाहिए । उसे व्यवहार समझकर छोड़ नहीं बैठना चाहिए । क्योंकि

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