Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 82
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 75 पर भी, यदि स्वीकार नहीं किया जाता तो कर्मों को कर्म संज्ञा ही प्राप्त न होती । कारण कि भोक्ता के अभाव में कर्म-कर्ता का भी अभाव मानना होगा । यतः अचेतन पुद्गल तो कर्मफल का भोक्ता है नहीं, भोक्ता तो जीव ही है अत: कर्म भी जीवकृत अवश्यमेव स्वीकार करने योग्य है । न्याय को ताक में रखकर तो कर्तृकर्मभाव की गवेषणा ही असंभव है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि आ. अमृतचन्द्रजी ने जो निम्न श्लोक (कलश) लिखा है, क्या वह व्यर्थ है - आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥62॥ - आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है ज्ञान के अतिरिक्त और क्या करता है ? अर्थात् कुछ नहीं करता । आत्मा परभाव (पौद्गलिक भाव) का कर्ता है, यह व्यवहारी जनों का मोह समाधान - यह निश्चय नय का व्याख्यान है । यदि कोई ऐसा माने कि निश्चय नय से आत्मा पौद्गलिक कर्म के रूप में परिणमन करता है तो वह मिथ्यात्व ही कहलावेगा। परन्तु यदि व्यवहार नय से अर्थात् निमित्तकर्ता मानता है तो कोई दोष नहीं है । निमित्तकर्ता कोई अवस्तु तो नहीं है । जैसे जिनवाणी शब्द का अर्थ है कि जिनेन्द्र प्रभु की वाणी । वाणी तो पुद्गल है इस कार्य का कर्ता जिन को बतलाया गया है, क्या वह असत्य है ? कदापि नहीं । क्योंकि इसका निषेध करने से तो संसार और मोक्ष एवं मोक्षमार्ग का ही अभाव मानना होगा जो कि न तो दृष्ट है और न इष्ट ही । अभिन्न कर्तृकर्मभाव (निश्चय का विषय) तथा भिन्न कर्तृकर्मभाव (व्यवहार) दोनों ही स्वीकृत है । भूल तो तब होगी जब कि निश्चय नय से ही कोई भिन्न कर्तृकर्मभाव मानता है । आ. कुन्दकुन्द स्वामी ने पञ्चास्तिकाय में तथा आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने जीव स्वरूप का वर्णन करते हुए उसे कर्त्ता स्पष्ट रूप से लिखा है । हमने द्रव्यसंग्रह की गाथा पीछे उद्धृत की है । (संख्या नं. 8) निज को निज और पर को पर मानना तो अभीष्ट है किन्तु निज का अथवा पर का सर्वथा अकर्तृत्व स्थापन तो मिथ्यात्व ही है । इस विषय में आ. कुन्दकुन्द ने सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार (समयसार) में घोषणा की है कि सर्वथा अकर्ता मानने से तो सांख्यमत की प्राप्ति होगी । इस प्रकरण में पं. बनारसीदास के निम्न दो छन्द दृष्टव्य है - केई मूढ़ विकल एकान्तपक्ष गहैं कहैं। आत्मा अकरतार पूरन परम है। तिनसों न कोई कहै जीव करता है तासों फेरि कहैं कर्म को करता करम है ॥ ऐसे मिथ्यागमन मिथ्याती ब्रह्मघाती जीव - जिनके हिए अनादि मोह को मरम है। . तिनके मिथ्यात्व दूरि करिवे को कहैं गुरु स्याद्वाद परवान आतम धरम है ॥

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