Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 87
________________ 80 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण मानकर पुरुषार्थहीन होने के लिए । पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने सभी नय द्वारों से अध्यात्म निरूपण में कर्त्ता-कर्म भाव की सम्यक् मीमांसा की है जो कि हमें सम्यक्स्वरूप बोध कराने में समर्थ है । 35. पाप-पुण्य, लोहे-सोने की बेड़ी समयसार निश्चय नय प्रधान महान आध्यात्मिक कृति है, साधु को बाह्य से अन्तर में प्रवेश कराती है । इस समाधिस्थ स्थिति में योगी पाप-पुण्य से परे हो साम्यभाव का अनुभव करता है । उसकी अपेक्षा निम्न पद की अपेक्षा उपादेय भी पुण्य या शुभकर्म, पाप-अशुभ के समान ही बन्धन का कारण स्वीकृत किया जाता है । आ. कुन्दकुन्द ने इसी भाव को गाथा नं. 153 में निम्न प्रकार व्यक्त किया है । सौवण्णियंपि णियलं बंधदि कालायसं बन्धदि एवं जीवं सुहमसुहं बा कदं जैसे सोने की बनी बेड़ी हो चाहे लोहे की, दोनों ही तरह की बेड़ियाँ पुरुष को साधारण रूप में जकड़ कर रखती है । इसी प्रकार चाहे शुभकर्म हो या अशुभकर्म, वह साधारण रूप से जीव को बाँधता है, संसार में रखता है । पिल्लह पुरिसं । कम्मं । ता.वृ. 153॥ उपरोक्त विषय को नय विवक्षा से अनभिज्ञ जन प्राय: समझने में असमर्थ होकर असमीचीन ग्रहण कर लेते हैं । इसी अभिप्राय को दृष्टिगत कर आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने समयसार की विवेकोदय व्याख्या में इसका पर्याय स्पष्टीकरण किया है, अवश्य पठनीय है । (पृष्ठ 73) " जीव को जकड़े रहने रूप सामान्य की अपेक्षा से तो कर्म एक ही प्रकार का होता है फिर भी उसकी विशेषता की ओर देखा जाय तो प्रधानतया उसके शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार हो जाते हैं। जो जीव को नरक निगोदादि अवनति की तरफ ढकेल कर संसार वृद्धि का ही कारण हो वह तो अशुभ कर्म और जो अनुदिशेन्द्र, सौधर्मेन्द्र, लौकान्तिकारिक भवदायक होकर परीत संसारिता प्रकट करते हुए उन्नति का सहायक हो वह शुभकर्म कहलाता है । अब जब तक कि यह जीव सरागता को लिये हुए है तब तक इसके लिए अशुभकर्म हेय और शुभकर्म उपादेय होता है अर्थात् जहाँ तक शुक्लध्यान रूप परमसमाधि में नहीं पहुँचा जाता है या पहुँचकर भी उसमें स्थिर नहीं रह पाता तो अशुभ कर्मों को परिहार्य समझकर शुभ कर्मों को तत्परता के साथ करता है ( व्यवहार को अपनाता है) परन्तु जबकि यह जीव आत्मतन्त्र होकर परम समाधिस्थ बन रहा है या उसके सम्मुख ही होता है तो अशुभ कर्मों की तरह से ही शुभकर्मों को भी लात मारता है । वह सोचता है कि यह भी तो कर्म ही है इसके रहते मैं स्वतन्त्र थोड़े ही हो गया । " आचार्य आगे निरूपित करते हैं, "बेड़ी चाहे लोहे की या सुवर्ण की जबतक उसे न काटी जावे तब तक वह कैदी को जकड़े हुए ही रहती है उसी प्रकार कर्म चाहे अशुभ हो चाहे शुभ जब तक कि वह

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