Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 80
________________ 73 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण इस पर शंका होती है कि फिर द्रव्यकर्म कैसे हुआ? इसका उत्तर यह है कि द्रव्यकर्म पुद्गल-द्रव्य का किया हुआ होता है अत: उसका कार्य कर्म है और उसका कर्ता पुद्गलद्रव्य है । यह उत्तर भी ठीक तरह से समझ में नहीं आता है क्योंकि फिर तो पुद्गल-द्रव्य भी उसके अपने परिणाम का ही कर्ता होना चाहिए, न कि पुद्गल-द्रव्य का । ऐसे दशा में तो फिर भावकर्म और द्रव्यकर्म इस प्रकार से भेद न होकर जीव भावकर्म और पुद्गल भावकर्म ऐसे भेद होने चाहिए । इच्छावान् के द्वारा सम्पन्न परिणमन का नाम ही कार्य या कर्म होता है और वह इच्छावान जीव उसका कर्ता होता है । ऐसा इन्हीं ग्रन्थकार ने अपने समयसार ग्रन्थ में कर्तृकर्माधिकार में गाथा नं. 97 तथा गाथा नं. 102 में स्पष्ट बताया है । इच्छारहित जीव तथा पुद्गल के द्वारा सम्पादनीय परिणमन को कर्म न कहकर भाव्य कहा जाता है उसका सम्पादन कर्ता न होकर भावुक होता है । निष्कर्ष यह है कि जीव के रागद्वेषादि भाव की तरह पुद्गल का ज्ञानावरणादि रूप परिणमन भी पुद्गल का कर्म नहीं है । यह तो जीव का ही कर्म है, यह जीव के ज्ञानादि गुणों का घात करता हुआ, उसके लिए फलप्रद होता है । यह बात दूसरी है कि रागद्वेषादि भाव जीव का स्वयं का विकार भाव होता है अतः उससे अभिन्न होता है । ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल स्कंध जीव से भिन्न द्रव्य है । अत: भिन्न को भी ग्रहण करनेवाले अभूतार्थ नय से तो (व्यवहार नय से) वह भी जीव का ही कर्म है । केवल अभिन्न विकार को ही ग्रहण करनेवाले भूतार्थ नय (अशुद्ध निश्चय नय) की दृष्टि में ज्ञानावरणादि से जीव का कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः वहाँ तो रागादि भाव ही जीव का कर्म है और जीव ही उसका कर्ता है ऐसा जैनागम का कथन है ।" । आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने वृहद् द्रव्यसंग्रह में कहा है - पुग्गलकम्मादीणं . कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो । चेदण कम्माणादा . सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥8॥ - आत्मा व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का कर्ता है और (अशुद्ध) निश्चय से रागद्वेषादि चेतनभाव. कर्मों का तथा शुद्धनिश्चय से शुद्धभावों का कर्ता है । आ. कुन्दकुन्द स्वामी की इसी विषय की गाथा भी दृष्टव्य है - जं कुणदि भावभादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स । . कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं ॥स. प्रा. 98॥ ___ - आत्मा जिस भाव को करता है (निश्चय नय से) वह उसका कर्ता होता है उसके निमित्त से (उन भावों के निमित्त से) पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मत्वरूप परिणमन करता है । जीव के निमित्त से कर्म परिणाम उत्पन्न होता है अतः जीव उसका निमित्त कर्ता है । इसी को व्यवहार नय से कर्ता माना गया है । __ आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने इन्हीं आर्ष मान्यताओं का निरूपण सोदाहरण एवं तर्क पूर्ण शैली में नय विवक्षा से किया है । उनका चिन्तन कितनी गहराइयों तक पैठ बना चुका

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