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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
71 सदा आहारक ही हैं । नोकर्म आहार की अपेक्षा विग्रहगति समापन्न जीव भी अनाहारक होता है, कवलाहार की अपेक्षा से संयत आत्मा जब अप्रमत्त दशा में होता है तब तक अनाहारक होता है किन्तु जब आहार ग्रहण करता है तब भी वह इन्द्रिय संपोषण के लिए नहीं करता किन्तु धर्मध्यान में लगे रहने के लिए करता है इसलिए उपचार से अनाहारक ही कहा जाता
इस विषय में यह गाथा अवश्य पठनीय है - अक्खामक्खणमित्तं रिसिणो भुञ्जन्ति पाण धारण णिमित्तं । पाणा धम्मणिमित्तं धम्मं हि चरन्ति मोक्खटुं ॥
(उद्धृत भग. आरा.) - ऋषिगण अक्षमृक्षण मात्र भोजन प्राण धारण करने हेतु करते हैं प्राणों को धर्म के निमित्त धारण करते हैं एवं धर्म का आचरण मोक्ष के लिए करते हैं । यदि इन्द्रिय-विषय पोषण हेतु भोजन किया जाता है तो वह अवश्य ही आहार ग्रहण करना वास्तविक है भले ही वह व्यवहार नय का विषय हो । निश्चय नय का यह वाक्य कि आत्मा भोजन नहीं करता वह स्वरूप की दृष्टि से है उसका प्रयोजन भोजन का त्याग करने के लिए है, छल के लिए नहीं । इच्छापूर्वक भोजन करना और कहना कि मैं भोजन नहीं करता, शरीर करता है, निश्चय नय का दुरुपयोग है । निश्चय नय तो निश्चय ही मोक्ष पर चलने की प्रेरणा करता है।
34. कर्ता कर्म भाव लोक में जो कुछ दृश्यमान होता है वह सब कार्य है, कर्म है उसको जो उपादान रूप से या निमित्त रूप से सम्पन्न करता है वह कर्ता होता है । यहाँ हम आत्मा के कपिन और उसके कर्म की चर्चा समयसार, प्रवचनसार और विवेकोदय के माध्यम से करेंगे । आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने इस विषय में अपने इन तीन ग्रन्थों में क्या नय प्ररूपणा की है यह इस शीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा । यहाँ पुद्गल और आत्मा की अनादि से संश्लेषता के कारण पुद्गल कर्म का भी अवश्यंभावी नय दृष्टि से निरूपण होगा ।
पू. आ. ज्ञानसागरजी ने इस विषय को स्वरचित निम्न श्लोकों में प्रकट किया हैविकरोति स कर्मायं रागद्वेषादिरूपतः । तत्र सञ्चीयते कर्म नूतनं भावानुसारतः ॥प्रवचनसार 229॥ कर्म नाम विकारस्य यत्र भूतार्थके नये । तत्र जीवो न कर्तास्तु पौद्गलिकस्य कर्मणः ॥30॥
हिन्दी पद्यानुवाद - है अनादि से कर्मयुक्त इससे विकार परिणाम धरे । ताकि पुनः कर्म प्रयोग इस चेतन से सम्बन्ध करे ॥