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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
69 वैराग्य पूर्ण हो, सांसारिक विषय-वासना रूप झंझटों में सर्वथा दूर हो और शुद्धात्मस्वभाव में तल्लीन रहनेवाला हो अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता को सम्यग्ज्ञान शब्द से लिया है जो कि निर्विकल्प समाधि की अवस्था में होता है और इतर आचार्यों ने जो रत्नत्रय को मोक्ष का मार्ग बताया है इससे पृथक् नहीं है ।"
उपरोक्त विश्लेषण अपने आप में समयसार के निश्चय-प्रमुख अभिप्रायः से कितना सटीक और सुष्ठु है । धन्य है आ. ज्ञानसागरजी की विषय-गंभीरता । इस सम्बन्ध में इसकी पुष्टि हेतु कुछ उद्धरण देता हूँ,
'णाणी रागप्पजहो' (ज्ञानी राग का परित्यागी है) आ. कुन्दकुन्द (स. पा. 229)
"सद्दव्वरओ समणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण" - स्वद्रव्य में लीन साधु ही निश्चय से सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है । आ. कुन्दकुन्द (मोक्ष पा. 14) _ 'परमाणु मित्तयंपि हु ..... । गाथा 211-212 । अर्थात् परमाणुमान रागी ज्ञानी नहीं
"ज्ञानकला जिनके हिय जागी ते जगमाँहि सहज वैरागी। ज्ञानी मगन विषय सुख माहीं यह विपरीतसंभवै नाहीं ॥''समयसार नाटक। "सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्य शक्तिः " ।कलश-136 ॥
- सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य शक्ति होती है । अकेले ज्ञान से बिना वैराग्य के ज्ञानी नहीं होता ।।
वस्तुत: समयसार का ज्ञानी और रत्नकरण्ड का ज्ञानी सम्यग्दृष्टि दोनों निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा से हैं, वे क्रमशः वीतराग एवं सराग हैं । व्यवहार नय को हेय कहते हुए एवं निश्चय को उपादेय कहते हुए भी जो गृहस्थ समयसार के अनुसार भी अपने को भ्रम से ज्ञानी और बन्धक मान बैठता है उसने तो अध्यात्म में प्रवेश ही नहीं किया है और वह अधिकारी भी नहीं है । दरअसल वह व्यवहार सम्यग्दृष्टि ही नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के आठ अंगों का पालन नहीं करता । वह तो व्यवहार या व्यवहाराभास को ही निश्चय मान बैठा है । कहा भी है - निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयति । नाशयति करणचरणं स बहिः । करणालसो बालः ॥
- पु. सिद्धि-50 ॥ - निश्चय को न समझकर जो अपनी भ्रामक एकान्त मान्यता को ही निश्चय से स्वीकार किये है वह करण (परिणाम या करणानुयोग) और आचरण (चरणानुयोग क्रिया) दोनों को नाश करता है वह बहिरात्मा प्रमादी अज्ञानी है। .' इत्यलम् किं बहुना आत्मनिन्दा, स्वलघुता को स्वीकार करनेवाला मुमुक्षु विषय विरक्ति युक्त ज्ञानाभ्यास से ज्ञानी बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है । आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने वाङ्मय में इस विषय का सुष्ठु निरूपण किया है । इस प्रकरण में उनकी व्यवहार से व निश्चय से की गई ज्ञान की व्युत्पत्ति दृष्टक है । गाथा नं. 178 का विशेषार्थ -