Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 75
________________ 68. आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 33. ज्ञानी का स्वरूप वर्तमान में अध्यात्म शास्त्रों का अध्ययन कर मात्र उसी के बल पर स्वयं को या स्वयं के समान विचारवालों को ज्ञानी कहकर व्यक्ति कल्पित आत्मतोष का अनुभव कर पतन को प्राप्त होता है जैसा कि पं. बनारसीदासजी ने आप बीती में स्वीकार किया है । समयसार का दुरुपयोग कर निश्चय नय के एकान्त से उनकी बुद्धि भ्रमित हो गई थी एवं वे अपने को ज्ञानी व शुद्धोपयोगी आत्मस्वादी मानने लगे थे, परन्तु गोम्मटसार का सुखद व्याख्यान उन्हें अनेकान्त की स्वीकृति पर ले आया । निश्चयैकान्त से भ्रमित अपनी दशा का चित्रण करते हुए उन्होंने अर्द्धकथानक में लिखा, ".... करैं सदा नियत रस पान" "करनी को रस मिटि गयो मिल्यो न आतम स्वाद । भई बनारसि की दसा जथा ऊँट को पाद ॥" न इधर के रहे न उधर के, इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टा: वाली कहावत चरितार्थ हो गई। भ्रम दूर होने पर उन्होंने जो लिखा वही प्रामाणिक स्वयं स्वीकार किया । पूर्व की रचनायें उन्होंने समाप्त कर दी ताकि दुरुपयोग न हो । स्याद्वाद दृष्टि जागृत होने पर रचित समयसार नाटक आदि को उन्होंने लिखा । उन्होंने स्वयं उल्लेख किया - "अब सब भई कवीसुरी स्यादवाद परवान ।" उपरोक्त बात को दृष्टिगत कर आ. ज्ञानसागर महाराज ने समयसार के ज्ञानी का चित्रण करते हुए स्पष्ट किया है, पृष्ठ 73 "विशेषार्थ - यहाँ अज्ञानी से ज्ञानी कब होता है यह बतलाते हुए आचार्य ने बतलाया है कि जब तक यह क्रोधादिक भाव किसी भी रूप में करता रहता है तब तक अज्ञानी है किन्तु जब क्रोधादि रूप आर्त्तरौद्र भाव से रहित होकर निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है. उस समय ज्ञानी बनता है तब उसके तन बन्ध नहीं होता । सारांश यह है कि जब यह अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त होता है तब ही ज्ञानी होता है । .... जिस संयत के सारे प्रमाद नष्ट हो गये और जो समग्रं ही महाव्रत और अट्ठाईस मूलगुण तथा शील से युक्त है, शरीर और आत्मा के भेदज्ञान में तथा मोक्ष के कारणभूत ध्यान में निरन्तर लीन रहता है वह ज्ञानी है और जब तक उपशमकं या क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं करता तब तक स्वस्थान अप्रमत्त रहता है यही बात परमात्मप्रकाश में भी कही है, देह विभिण्णउ णाणभउ जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहि परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ अर्थात् जो जीव परमसमाधि में स्थित होकर देह से रहित मात्र ज्ञानमय परमात्मा का अनुभव करता है अर्थात् तन्मय होकर रहता है वही पण्डित अर्थात् ज्ञानी होता है । (पृष्ठ 74) "विशेषार्थ - आचार्यदेव ने यहाँ पर ज्ञान शब्द से उसी ज्ञान को लिया है जो कि

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