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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
65 सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आत्मा के ही तो स्वरूप हैं । पर को पर समझते हुए उसे छोड़ते चले जाना और अपने आपकी तरफ रूख की ओर कदम बढ़ाते चले जाना इसी का नाम तो रत्नत्रय है और इस प्रकार करते-करते अन्त में और सब-कुछ को भूल कर अपने आप में ही तन्मय हो लेना यही तो निश्चय नय का स्वरूप है जो कि साध्य है व्यवहार उसका साधन है, साधन के बिना साध्य कहाँ। दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । दोनों ही नय वस्तुगत अपने-अपने योग्य धर्म को विषय करनेवाली हैं । निश्चय नय सामान्य को ग्रहण करती है तो व्यवहार नय उसके विशेष को एवं दोनों का तादात्म्य सम्बन्ध है । वस्तु का सामान्य (धर्म) व्यापक है तो विशेष व्याप्य । सामान्य एक तरह से जनक है तो विशेष धर्म, जन्य । दोनों पिता-पुत्र की भाँति होते हैं । आदमी अपने पिता की सन्तान होता है तो अपने पुत्र का जनक भी । इसी तरह अवान्तर सत्ता, महासत्ता सामान्य का विशेष होती है परन्तु प्रत्यवान्तर सत्ता के लिए वही सामान्य भी ठहरती है । गो पशु का भेद है किन्तु धवल और धेनु के लिये वही सामान्य भी ठहरती है एवं व्यवहार और निश्चय दोनों नयों का विषय कथञ्चित् एक ही हो जाता है । अतः एकदम व्यवहार नय की उपेक्षा कर देना ठीक नहीं है क्योंकि निश्चय नय का परिचायक भी व्यवहार ही है।"
आ. महाराज ने समयसार गाथा नं.32 के भाव का हार्द खोलते हुए लिखा है, (विवेकोदय) "केवली के शरीर का वर्णन करना सो व्यवहार नय से केवली का वर्णन ही हो जाता है क्योंकि व्यवहार नय से शरीर और आत्मा को एक माना गया है - "ववहारणओं भासदि जीवों देहो य हवदि खलु एक्को" ऐसा श्री समयसारजी में खुद कुंदकुंद स्वामी कहते हैं। अतः शरीर और आत्मा को एक कहना "व्यवहार नहीं किन्तु दुर्व्यवहार है, कुनय है, घोर मिथ्यात्व है" ऐसा कहनेवाले लोग तो स्वामी कुन्दकुन्द को भी उल्लंघन कर जाते हैं । व्यवहार नय संयोग सम्बन्ध का वर्णन करने वाला है, व्यवहार नय से आत्मा और देह एक है, इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर और आत्मा में संयोग सम्बन्ध है सो ऐसा कहना ठीक ही है । अब जो लोग इसे इसे दुर्व्यवहार या कुनय कहकर गलत बतलाते हैं उनके कहने का तो यह अर्थ हो जाता है कि शरीर का आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध भी नहीं है (सर्वथा भिन्न हैं) सो इस कहने को कोई भी समझदार नहीं मान सकता क्योंकि जो बात प्रत्यक्ष सिद्ध है, निर्विवाद है उसको इन्कार करना तो निरा मूर्खपन है । हाँ, शरीर और आत्मा में तादात्म्य मानना (सर्वथा एक मानना) वस्तुतः एक समझना निश्चयनय से भी एक ही कहते रहना जरूर भूल है जैसा कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है और ऐसा ही इतर प्रामाणिक जैनाचार्यों ने भी माना है उसको ध्यान में लेकर अगर कोई अपनी तरफ से अण्ट-सण्ट कहे तो कहा करो।"
आ. ज्ञानसागर का उक्त विवेचन बड़ा ही मार्गदर्शक है इस विषय में उन्होंने अन्य आचार्यों का सन्दर्भ संकेतित किया है सो समयसार कलश नं. 27 में आ. अमृतचन्द्र ने भी यही भाव व्यक्त किया है, "एकत्वं व्यवहारतो न पुनः कायात्मनोर्निश्च गत् ॥"
अनेकान्त में जो आत्मा शरीर की एकता व अनेकता दोनों स्वीकृत