Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 58
________________ 51 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण अन्यत्र भी - वरवयतहिं सग्गो मा दुक्खं होइ णिरय इयरेहिं । छाया तवट्ठियाणं पाडिवालंताण गुरु भेयं ॥ - कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षपाहुड - 25 - व्रत और तप (पुण्य) से स्वर्ग जाना श्रेष्ठ है किन्तु इतर अर्थात् अव्रत और पाप से नरक का दुःख प्राप्त करना ठीक नहीं । छाया और आतप (धूप) में बैठे हुए व्यक्तियों के परिणामों में बड़ा भेद है । पू. आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने इस विषय में व्यापक चर्चा नय विभाग के द्वारा की है । हमने भी इस प्रकरण में व व्यवहार-निश्चय मोक्षमार्ग एवं सराग-वीतराग चारित्र के प्रसंग में उनके दृष्टिकोण को माध्यम विस्तार से प्रस्तुत किया है । आगे भी संभवतः पू. श्री की समयसारजी की व्याख्या के प्रसंग में रखना अपेक्षित हो सकता है । प्रवचनसार में आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने अन्यत्र भी निश्चय और व्यवहार नय विषयक स्थलों को स्पर्श किया है । यहाँ संक्षेप में कुछ फुटकर निरूपण उनके ही शब्दों में प्रस्तुत ___ (पृष्ठ 68) "बात यह है कि हमारी दो आँखों में से एक आँख दाहिनी तरफ से देखती है और दूसरी बायीं तरफ से देखती है । इसी प्रकार द्रव्यार्थिक नय वस्तु के अनेक विशेषों में होकर रहनेवाले सामान्य धर्म को ग्रहण करता है । अतः उसकी दृष्टि में वस्तु वही है ऐसा अनुभव होता है । पर्यायार्थिक नय वस्तु के सामान्य स्वरूप को न देखकर उसमें निरन्तर होनेवाले विशेषों को ग्रहण करता है । अतः उसकी दृष्टि में वस्तु अब और है, और है ऐसा नया-नया अनुभव होता रहता है । जब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों से एक साथ काम लिया जाता है तब वस्तु (वही) होकर भी और-और अवस्था को धारण करती हुई एक साथ दोनों रूप प्रतीत होती है ।" ___ अपेक्षा भेद से आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने निश्चय नय (द्रव्यार्थिक) को सद्भूत नय और व्यवहार (पर्यायार्थिक को असद्भूत नय उल्लिखित किया है । "सद्भूतापेक्षया जीवो न नश्यति न जायते । भव एव यतो नाशः किन्तु तौ रूपतः पृथक् ॥27॥ असद्भूततयाक्रान्तो जायतेऽपितु नश्यति । स्वभावावस्थितः कश्चित् संसारेऽस्मिन् विद्यते ॥28॥ (बिना आचरण के मात्र शब्द ज्ञान या रटने से लाभ नहीं) "शुकपाठेन को लाभः च श्रद्धानेनचकेवलम् । सितास्तिमधुरेत्येवं मुखं सुस्वादु किं भवेत् ॥57॥

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