Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 65
________________ 58 आचार्य ज्ञानसागर के वाड़मय में नय-निरूपण 2. कुछ लोग कहते हैं कि निश्चय नय से अकाल मरण नहीं है, व्यवहार से है । उसका उत्तर यह है कि निश्चय नय से तो मरण ही नहीं है फिर मरण के भेद अकाल या काल मरण का प्रश्न ही नहीं है । जिस नय से (व्यवहार से) मरण है उसी दृष्टि से अकालमरण का सद्भाव है । फिर व्यवहार नय कुछ अवस्तु का कथन नहीं करता वह भी सत्य है । वह भी जिनवाणी में ही प्रयोग किया गया है। 3. आ. अमृतचन्द्रजी ने प्रवचनसार की टीका में (अंत में) 47 नय कहे हैं उनमें कालनय, अकालनय, नियतनय, अनियतनय वर्णित किये हैं । जब अकाल में एवं अनियतरूप में कार्य होता है तभी तो ये कहे हैं । 'सव्वं' सप्पडिवक्खो के अनुसार काल है तो अकाल भी नियत है और अनियत भी । ____4. समयसार में शुद्धध्यान मूलक निरूपण की प्रधानता है बाह्य कर्तव्य से हटाकर अन्तर्जल्पों से भी रहित कर शुद्ध आत्मानुभव या निश्चय-चारित्र की प्रकटता का उपदेश है । अत: बाह्य हिंसा या अहिंसा दोनों ही अनवतरित होने से दोनों को समान कहा है । 5. तर्क एवं अनुमान से तो स्पष्ट रूप से अकालमरण सिद्ध है । यदि अकालमरण न होता तो औषधिप्रयोग भी न होता, समुद्र में गिरने व आग में पड़ने का भी निषेध न होता । जीव-हिंसा करने पर भी कोई पापी न होता न दण्ड का पात्र होता और न्यायालय भी न होते । भगवान् ऋषभदेव भी दण्ड-नीति चालू नहीं रखते । किं बहुना क्रमबद्ध पर्याय शब्द का प्रयोग भी अवांछनीय है । नियतिवाद का एकान्तमिथ्यात्व त्याज्य है तथा अकाल मरण का भी सद्भाव है । आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने विभिन्न स्थलों पर सावधान किया है । नयों का एकान्त चाहे निश्चय का हो या व्यवहार का, पतन का कारण है । 28. उपादान-निमित्त इस विषय का आ. ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा किया गया निरूपण पूर्व में कुछ नय योजना के अन्तर्गत सम्यक्त्वसारशतक से ही प्रस्तुत कर चुका हूँ पुनः कुछ और भी कहने की आवश्यकता अनुभव करता हूँ । भले ही दो-चार पंक्तियों की पुनरावृत्ति क्यों न हो। दृष्टव्य है, आचार्य की शब्दावली पृष्ठ-13 । "बस, तो इसी प्रकार सभी प्रकार का कार्य उपादान और निमित्त दोनों की समष्टि से बनता है । उसकी निश्चय नय उपादान से बना कहता है और व्यवहार नय निमित्त से। सो तो यह ठीक है किन्तु उपादान से ही कार्य बना है निमित्त होकर भी कुछ नहीं करता, यह तो अनभिज्ञता है।" वस्तुस्वरूप यह कहता है कि उभयविध कारण वस्तु में कार्य की उत्पत्ति में कारण ही है, अकारण नहीं । यदि किसी एक कारण को अकारण कहा जाय तो जगत में चक्र, चीवर, धागा, पानी आदि की अनुपस्थिति में भी मिट्टी घटरूप परिणत होती हुई क्यों नहीं नजर आती । किंच यदि यों कहा जाय कि 'कुछ भी हो पर कारण तो उपादान ही है'

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