Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 68
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 61 में अकिचित्कर मानते हैं उनकी मान्यता आगम विरुद्ध है । निश्चय नय को मुख्य कर उपादान को किसी अवसर पर प्रधानता दी जा सकती है किन्तु व्यवहार नय का विषय निमित्त भी अपेक्षित अवसर पर महत्त्वशाली है। सम्पूर्ण उपादान-निमित्त के निरूपण को निश्चय - व्यवहार का निरूपण कह सकते हैं। जैसे- उपादान कर्त्ता अर्थात् निश्चय नय से कर्त्ता अथवा निमित्तकर्त्ता अर्थात् व्यवहार नय से कर्त्ता । पू. महाराजजी ने दोनों कारणों को एवं दोनों नयों को अपेक्षा दृष्टि से समान महत्व दिया है । 29. समयसार यह आ. कुन्दकुन्द स्वामी की अमूल्य कृति है निर्विवाद और सर्वमान्य रूप में यह अध्यात्म का श्रद्धा केन्द्र है । इसका मूल अभिधेय शुद्धध्यान है । आत्मस्वरूप की गवेषणा नव-पदार्थों के स्वरूप अवबोध के परिवेश में आ. कुन्दकुन्द ने की है । वस्तुतत्व का निश्चय और व्यवहार से विवेचन करते हुए निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प शुद्ध आत्मानुभूति पर पहुँचाने का यह ग्रन्थ एक अचूक उपाय है । इसकी रचना प्रमुख रूप से साधु को लक्ष्य बनाकर की गई हैं एतदर्थ ही इसमें पूर्व में साधक के रूप में स्वीकृत करते हुए भी व्यवहार को निश्चय के द्वारा प्रतिषेध्य कहा गया है। साथ ही व्यवहार को निश्चय के अविरोधी रूप में प्ररूपित किया गया है । प. पू. आ. ज्ञानसागरजी महाराज समयसार के बड़े रसिक थे । उन्होंने इस ग्रन्थराज पर विवेकोदय नाम का स्वतन्त्र व्याख्या ग्रन्थ लिखा साथ ही उन्होंने समयसार की आचार्य जयसेन स्वामी की टीका का हिन्दी अनुवाद किया एवं उसका हार्द खोलने के लिए विशेषार्थ प्रस्तुत कर पाठकों को नवीन दिशा दी। समस्त विवेचन निश्चय - व्यवहार के स्पष्टीकरण की शैली में है । आ. ज्ञानसागरजी यतः संस्कृत भाषा एवं व्याकरण पर पूर्ण अधिकार रखते थे अतः किञ्चित् मात्र आवश्यकता अनुभव होने पर नयों के सम्बन्ध में संभावित भ्रम को दूर करना उनका सर्वत्र अभिप्राय रहा है । समयसार ग्रन्थ तो स्यवं ही नयों का जाल ही है कारण कि मानव मन में, विशेष तौर से श्रमण के मन में उत्पन्न होनेवाले विविध हेयोपादेय विकल्प समूह का ही तो स्वरूप उसमें प्रकट किया गया है। विकल्पों को ही नय संज्ञा दी है। कहा भी है । " विकल्पात्मका नयाः ।" विशिष्ट आगम ज्ञान से रहित, गुणस्थानमार्गणास्थान से अपरिचित, नयस्वरूप से अनजान एवं विषयभोगों से संसक्त हृदयवाला यदि समयसार के हिमालय के समान नयों के नाना आरोह और अवरोहों के मध्य उतरता है तो उसका अकल्याण ही है । इसी को दृष्टिगत आचार्य ज्ञानसागरजी का नय निरूपण प्रकट हुआ है। यहाँ उनके निश्चय - व्यवहार निरूपण पर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करेंगे और आवश्यक प्रतित होगा तो विवेकोदय के अवशिष्ट अंश का भी समयसार में विषयवार अभीष्ट उपयोग करेंगे। कारण यह है कि 'विवेकोदय' भी समयसार का ही स्पष्टीकरण एवं अनुवाद है ।

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