Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 67
________________ 60 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण अर्थ - जो जिस किसी को और का और कर सकता हो वह उसका निमित्त है किन्तु जो उसके द्वारा और रूप में परिणत हो जाया करता हो वह उसका नैमित्तिक होता . है, जैसे - हम घृत को तपाना चाहते हैं तो उसे अग्नि पर रख देते हैं इससे वह पिघल जाता है, आग उसे पिघला देती है । शंका - आप यह क्या कह रहे हैं कि अग्नि घृत को पिघला देती है; नहीं, अग्नि घृत को नहीं पिघला सकती किन्तु वह अपनी योग्यता से पिघलता है । समाधान - ठीक है, घृत में पिघलने की योग्यता है, अग्नि (उष्णता) के द्वारा, तभी तो वह उससे पिघलता है और अग्नि में घृत को पिघला देने की योग्यता है क्योंकि उसके संयोग बिना वह पिघल नहीं पाता । यही तो निमित्त-नैमित्तिकता है । जो जिसके बिना नहीं हो पाता और जिसके होने पर हो ही जाता है उस (कारण) का वह कार्य है, ऐसा हमारे सभी आचार्यों ने माना है । जैसे कि सूर्य के न होने पर दिन नहीं होता और सूर्य के उदय में दिन हो ही जाता है, अतः सूर्य दिन होने का कारण एवं दिन उसका कार्य है यानी सूर्य के द्वारा दिन होता है ।" आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने उपरोक्त निरूपण कितना विशद, सटीक एवं आगमानुसार किया है । धन्य है उनकी पकड़ और विषय का सूक्ष्म मंथन । हम यहाँ उनके कथन की पुष्टि हेतु कुछ आगम प्रमाण प्रस्तुत करना चाहेंगे। वाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतस्वभावः । नैवान्यथा मोक्षाविधिश्चपुसां तैनाभिवन्धस्त्वभृषिर्बुधानाम् ॥ बृहत्स्वयंभूस्तोत्र-60॥ - हे भगवन् आपके मत में कार्य को उत्पत्ति में बाह्य (निमित्त) और इतर (उपादान) कारणों की समष्टि ही (आवश्यक) है यह प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाला स्वभाव है इसके बिना तो मनुष्यों को मोक्ष का मार्ग ही प्राप्त नहीं होता है । इसी उपदेश के कारण आप ज्ञानियों के अभिवन्द्य हैं। __ "अन्यथानुपपत्तित्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् ।" - जिसके बिना कार्य सिद्ध नहीं होता वह कारण है । निमित्त के बिना कार्य नहीं होता अत: यह भी कारण है । तत्समय की योग्यता भी तो निमित्तों के सद्भाव से होती जीवपरिणाम हे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमन्ति । पुग्गल कम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥समयप्राभृत 86॥ ___- जीव परिणाम के कारण पुद्गल कर्मत्व को परिणमित हो जाते हैं उसी प्रकार पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी विकार रूप परिणत हो जाता है । यहाँ आ. कुन्दकुन्द ने एक स्थान पर निमित्त और अन्य पर हेतु शब्द का प्रयोग किया है । स्पष्ट है कि निमित्त भी कारण है कतिपयजनों को निमित्त की स्वीकृति तो है; किन्तु वे उसे कारण या कार्योत्पत्ति

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