Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 56
________________ आचार्य ज्ञानसागर वाड्मय में नय-निरूपण 49 I या उपचार (कारण में कार्य का) भी अपने रूप में मान्य है । जितना कषायांश घटता है उस विशुद्धि रूप परिणत आत्मा का व्यावहारिक अनुभव स्वीकार्य है क्योंकि प्रत्येक संज्ञी जीव का ज्ञान गुण मन के माध्यम से कुछ-न-कुछ अनुभव तो करता ही है । मिथ्यात्वज्ञान- चारित्र से युक्त आत्मा से सम्यक्त्व - चारित्र आत्मा के उपयोग में अन्तर तो है ही । निश्चय नय के द्वारा मान्य अनुभव आ. ज्ञानसागरजी ने समाधिकाल में स्वीकार किया है वह उपरोक्त विश्लेषण से सिद्ध है । इसे ही निश्चय - मोक्षमार्ग कहते हैं । आ. ज्ञानसागरजी ने ध्यान अवस्था (समाधिकाल) में अनुभव अर्थात् शुद्ध आत्मानुभव लिखा है । गृहस्थ के मोक्षमार्गी ध्यान संभव नहीं है । उत्तम संहनन का एकाग्रचिन्तनिरोध ध्यान का लक्षण है। हाँ, हम लोग जो गृहस्थ के ध्यान की संभावना कहते हैं वह वस्तुतः भावना है । इसे व्यवहार नय से अनुभव कहें तो ठीक है । आ. शुभचन्द्रजी का निम्न श्लोक इसे सम्यक् स्पष्ट करता है 1 भावना परा । एकाग्रचिन्तारोधो यस्तद्ध्यानं अनुप्रेक्षार्थ चिन्ता वा तज्ज्ञैरम्युपगम्यते ॥ ज्ञानार्णव 25 / 16॥ व्यवहारिक अनुभव वास्तव में परमार्थ से भावना, अनुप्रेक्षा, अर्थचिन्तन ही है । कहीं चतुर्थ गुणस्थानवाला जीव अपने को समाधिस्थ मुनि सदृश अनुभवी नहीं मान ले एतदर्थ ही आ. ज्ञानसागरजी ने स्पष्टीकरण किया है । पृष्ठ 110 " (गृहस्थ के शुद्धात्मा के ध्यान ) अगर उनका उपर्युक्त विचार वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से है तब तो बिल्कुल ही झूठा । पागल के प्रलाप ही सदृश है । यदि आत्मद्रव्य की अपेक्षा से अपने आप को सुधारने के लिए किया जाता है तो ठीक ही है । यह शुद्धात्मध्यान नहीं कहा जा सकता है । यह तो शुद्धात्मभावना . विचार मात्र है। ध्यान तो आत्मा के उपयोग का तद्नुकूल परिणमन होना माना गया है ।" उनकी दृष्टि में तो पूर्व कथित अनुसार इन गुणस्थानों का अनुभव या सरागरत्नत्रय व्यवहारर- मोक्षमार्ग रूप में निश्चय - मोक्षमार्ग का साधन है । उन्होंने पृष्ठ 46 पर इसी हेतु अंकित किया है कि "अशुभ भाव से शुभ पर आये बिना शुद्धभाव पर नहीं पहुँचा जा सकता है ।" नीचे शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोगों विषयक आ. ज्ञानसागरजी के शब्दों को विशेषरूप उद्धृत किया जाता है ताकि विशेष परिज्ञान हो सके, (पृष्ठ 46)। - - 24. पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ, शुद्ध उपयोग ऐसे ही जो मनुष्य शुभभाव को ही पर्याप्त समझ रहा है वह शुद्धता को कैसे प्राप्त हो सकता है ? वह तो अपने विचार के अनुसार सदा अशुद्ध ही बना रहेगा । उसके शुभभाव में और अशुभभाव में कोई खास अन्तर नहीं होता है । यह बात ठीक ही है. इस प्रकार कह करके स्याद्वाद सिद्धान्त के पारगामी आचार्य महाराज ( आ. कुन्दकुन्द) अब उपर्युक्त दृष्टिकोण से भिन्न दृष्टिकोण (व्यवहार नय) को स्वीकार करते हुए फिर कहते हैं 44

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