Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 51
________________ 44 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण में शुद्धोपयोग का फल होता है । तात्पर्य यह है कि गृहस्थ तो शुभोपयोगी एवं व्यवहार मोक्षमार्गी ही है । उसके चारित्र को सरागचारित्र या व्यवहारचारित्र कहा है । विशेष यह है कि सातवें के स्वस्थान अप्रमत्त रूप में शुभोपयोग एवं सातिशय-श्रेणी आरोहण के अभिमुख रूप में शुद्धोपयोग का सद्भाव होता है । ऊपर शुभोपयोगी को भी धर्मात्मा कहा गया है इस पर आ. ज्ञानसागरजी महाराज स्वयं शङ्का उठाकर समाधान करते हैं, (पृष्ठ 6) __ शंङ्का - आपने शुभोपयोगी जीव को धर्मात्मा कहा सो हमारे तो समझ में नहीं आया क्योंकि धर्म तो शुद्धोपयोग का नाम है जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है एवं वह जिसके हो वह धर्मात्मा है यह ठीक है जैसे कि यहीं पर न. 11 की गाथा में 'यदि आत्मा शुद्धसम्प्रयोगयुतस्तदा तदा धर्म परिणतो भवति यतो निर्वाणसुखं प्राप्नोति' लिखा है तथा और भी जैन ग्रन्थों में हमने तो यही सुना है कि जो जीव को मुक्ति प्राप्त करा देता है वही धर्म है जैसा कि श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है - 'देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निबर्हणम्। संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे' ॥2॥ इस श्लोक से भी स्पष्ट हो रहा है । शुभोपयोग तो अशुभोपयोग की तरह ही संसार का कारण है । यह बात दूसरी है कि अशुभोपयोग से नरक निगोद में जाता है और शुभोपयोग से स्वर्ग जाता है ।। उत्तर - यह तो तुम्हारा कहना ठीक है जीव को मुक्ति प्राप्त करानेवाला धर्म है, किन्तु संसार में ही घुमानेवाला अधर्म होता है । फिर भी जैनाचार्यों ने उस धर्म को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप से तीन भागों में विभक्त कर बताया है जैसा कि इसी ग्रन्थ की छठी गाथा में आया है । उसमें भी प्रधानता सम्यक्चारित्र की है क्योंकि सफलता चारित्र के ही आधीन है । सरल शब्दों में समताभाव का नाम चारित्र है जो कि मोह और क्षोभ से या अहंकार और ममकार से रहित आत्मा का परिमाम होता है जैसा कि यहीं (प्रवचनसार को) सातवीं गाथा में बताया जा चुका है । वह चारित्र दो प्रकार का होता है । एक तो मोह से और क्षोभ से सर्वथा रहित होता है अतः संसाराभावरूप अपने कार्य को करने में पूर्ण समर्थ होता है उसे शुद्धोपयोग या वीतरागचारित्र (निश्चय नय से चारित्र) कहते हैं । दूसरा वह होता है - जहाँ मोह (मिथ्यादर्शन) का तो अभव होता है परन्तु क्षोभ (राग-द्वेष) का सर्वथा अभाव न होकर आंशिक सद्भाव बना रहता है जिससे वह अपनी शक्ति का विकास न कर सकने के कारण तत्काल अपने कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकता है । ऐसे चारित्र को ही सरागचारित्र (व्यवहार नय से चारित्र) या शुभोपयोग कहते हैं । इस शुभोपयोगवाला जीव लौकान्तिक या अनुत्तरिक देव तथा बलभद्र तीर्थंकरादि पद पाता हुआ अपनी आत्मा में समाश्वासन प्राप्त करता है जो कि शुभोपयोग एक अशक्त धर्मात्मा के लिए शक्ति सम्पादन का हेतु होने से ठीक ही है । शंङ्का - तो फिर टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य ने उसे (शुभोपयोग को) हेय क्यों लिखा? उत्तर - उन्होंने शुद्धोपयोग को दृष्टि में (अपेक्षा में) रखते हुए शुभोपयोग को हेय बताया है सो ठीक ही है । शुद्धोपयोग की अपेक्षा से तो शुभोपयोग हल्का ही है । जैसे मान लो, दो मनुष्य एक स्थान पर जाने के लिए रवाना हुए । उनमें से जो दृढ़ाध्यवसायी

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