Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 48
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 41 की उनकी शैली अद्वितीय है। उन्होंने गूढ़, रूक्ष एवं क्लिष्ट न्याय के तत्त्वों का सरल, सौन्दर्ययुक्त एवं सुपाच्य व्याख्यान कर रुचिपूर्ण बना दिया है । प्रथमानुयोग के महाशास्त्र वीरोदय की यह विशेषता है । आचार्य महाराज ने प्रमेय दार्शनिक ग्रन्थों का पारायण करके ही इन अध्यायों की रचना की होगी । उन्होंने स्वयं उन्नीसवें सर्ग की समाप्तिसूचक पुष्पिका में 'अनेकान्त तत्त्वस्थिति' रूप ही यह सर्ग स्वीकार किया हैं, देखिए " श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्वयं । वाणीभूषणं वर्णिनं घृतवरी देवी चयं धीचयम् ॥ सर्गेऽङ्केन्दुसमङ्किते तदुदितेऽनेकान्ततत्त्वस्थितिः 1 श्री वीर प्रतिपादिता समभवत्तस्याः पुनीतान्वितिः ॥19॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणीभूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल (वर्तमान मुनि ज्ञानसागर) विरचित इस वीरोदय काव्य में वीर भगवान द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त एवं तत्त्वस्थिति (या अनेकान्त रूप से अथवा अनेकान्तमय तत्त्वस्थिति) का वर्णन करनेवाला यह उन्नीसवां सर्ग समाप्त हुआ । बीसवें सर्ग में आ . ज्ञानसागरजी ने युक्ति और आगम के परिप्रेक्ष्य में सर्वज्ञसिद्धि को प्रतिपादित किया है । यह सर्ग भी वस्तुतः उनकी प्रज्ञा पूँजी का ज्वलन्त उदाहरण है । विद्वानों एवं जनसाधारण दोनों के लिए अवश्यमेव पठनीय एवं अनुसरणीय है । 21. प्रवचनसार यह आचार्य कुन्दकुन्द की महान् कृति है । दर्शन और चारित्र को व्याख्यायित करने का उनका अनूठा प्रयास है । इसमें ज्ञानतत्त्व, श्रेयतत्त्व और चरणानुयोग का विषय चारित्र सम्यक् प्रकार सुगठित पद्धति से निरूपित किया गया है। पू. आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने आध्यात्मिक ग्रन्थ की गाथाओं का संस्कृत श्लोकों में एवं हिन्दी पद्यों में तथा स्वोपज्ञ हिन्दी गद्य की टीका में स्वरूप प्रतिपादित किया है। यह अनुवाद एवं व्याख्यान की मिश्रित रचना है । आ. कुन्दकुन्द के अनुरूप ही उनके अभिप्राय को इसमें स्पष्ट किया गया है । इसके अन्तर्गत आने वाले विषयों का निरूपण भी निश्चय-व्यवहार नयात्मक है । भले ही निश्चयव्यवहार का नाम न लिया जावे परन्तु उनका विवेचन तो प्रायः सर्वत्र है । 22. सराग एवं वीतराग चारित्र निश्चय-चारित्र के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं चरणं शमरूपेण चारित्रं धर्मनाम भाक् । आत्मनो परिणामो हि मोहक्षोभातिगः शमः ॥7॥ पद्यानुवाद जो शमभावरूप होता है वही धर्म कहलाता है । मोहक्षोमविहीन आत्म परिणाम जैनमत यो गाता ॥ -

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