Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 45
________________ 38 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण लोग द्रव्य को तो सर्वथा ध्रुव मानकर पर्याय के अस्तित्व को ही पृथक् कहकर उसमें उत्पादव्यय मानते हैं यह भी अज्ञान है । तीनों एक ही काल में और तीनों पर्यायाश्रित होकर भी सब एक द्रव्य में ही हैं । कहा भी है - उत्पादट्ठिदिभंगा विज्जन्ते पज्जएसु पज्जाया । दव्वे हि सन्तिणियदं तम्हा दव्वं हवे सव्वं ॥ - प्रवचनसार - 101 - उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायों में विद्यमान रहते हैं और पर्याय नियम से द्रव्य में होती हैं (सबका आधार द्रव्य ही है) अतः द्रव्य ही सब-कुछ है अर्थात् वही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप है । अपेक्षा भेद से द्रव्यांश और पर्यायांश की स्वीकृति के कारण द्रव्य को ध्रुव एवं पर्याय को उत्पाद-व्यय रूप कह सकते हैं, सर्वथा नहीं । आचार्य ज्ञानसागरजी ने उदाहरण देकर यह उक्ति प्रस्तुत की है - "त्रयात्मिकातः खलु वस्तुजातिः ।" 3॥ समस्त वस्तु जाति उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है । किसी अन्य मनीषी ने भी "सर्व हि त्रिगुणात्मकं" कहकर यही सत्य प्रकट किया है । यह त्रिरूपता व्यवहार नय का विषय है क्योंकि अखण्ड अभेद पदार्थ में भी तीन या न्यूनाधिक भेद स्थापन करना व्यवहार नय का ही प्रयोजन है । यहाँ व्यवहार भी सद्भूद व्यवहार नय रूप है । कुछ नयस्वरूप से अनभिज्ञ जन ऐसा कहते हैं द्रव्य में उत्पाद-व्यय उपचार से है वास्तविक नहीं है । उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि उपचार का (उपचरित असद्भूत) कार्य तो वस्तुरूप से भेद होने पर भी अभेद स्थापन करना है । उत्पाद-व्यय अन्य द्रव्यरूप तो हैं नहीं जिनका अमुक द्रव्य में अस्तित्व है अपितु वे तो एक ही द्रव्य में हैं, कहा भी है, "उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत" (सूत्र) । यह भी जानने योग्य है एक द्रव्य दूसरे में अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को संक्रमित नहीं कर सकता । आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने उपरोक्त सत् की सिद्धि में अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों ही धर्मों को व्याख्यापित किया है, वे दृष्टान्तसहित कहते हैं - नरस्य दृष्टौ विऽभक्ष्यवस्तु किरेस्तदेतद्वरभक्ष्यमस्तु । एकत्र तस्मात्सदसत्प्रतिष्ठामङ्गीकरोत्येव जनस्य निष्ठा ॥4॥ मनुष्य की दृष्टि में विष्टा अभक्ष्य वस्तु है किन्तु शूकर के तो वह परम भक्ष्य वस्तु है । इसलिए एक ही वस्तु में सत् और असत् की प्रतिष्ठा को ज्ञानीजन की श्रद्धा अङ्गीकार करती ही है । उपरोक्त दृष्टान्त में यह प्रकट है कि एक ही काल में विष्टा में भक्ष्यता का अस्तित्व और नास्तित्व है । दोनों धर्म युगपत् हैं। __आचार्य अकलङ्कदेव ने राजवार्तिक में इसी अस्तित्व और नास्तित्व को विधि और प्रतिषेध शब्दावली में कहकर सप्तभंगी का लक्षण निम्न प्रकार लिखा है -

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