Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 36
________________ 29 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्टि हवेइ फुडु जीवो । जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गो त्ति ॥भावपाहुड़-31 ॥ - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप इनका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है उनका जानना सम्यग्ज्ञान है एवं रागादि (विषय-कषाय) का परिहरण चारित्र है । यह मोक्षमार्ग है । ज्ञातव्य है कि यह सब व्यवहार-मोक्षमार्ग है। - आत्मा का अपने आत्मा में लीन होना यह सम्यग्दर्शन स्पष्ट रूप से है उसको जानना सम्यग्ज्ञान है तथा आत्मा में विचरण करना मोक्षमार्ग है । ज्ञातव्य है कि यह निश्चयमोक्षमार्ग का लक्षण है । यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने 'फुडु' शब्द का प्रयोग किया है इससे विदित होता है कि यह साक्षात् मोक्षमार्ग है । आचार्य ज्ञानसागरजी ने इस सत्य को अपने दो छन्दों में व्यक्त किया है एवं समयसार का हार्द खोल दिया है; दृष्टव्य है, व्यवहार मोक्षमार्ग - अपनी गिरी हुई हालत को दिल से जो अनुसरता है । बुरे काम को छोड़ भले से भला काम वह करता है ॥ इस कर्त्तव्यपरायणता से सबसे भला कहाने को । एक रोज लायक बन जाता है उत्तमता पाने को ॥57॥ - उन्होंने यहाँ सारांश स्वयं लिखा है - वे कहते हैं उसकी इस कर्त्तव्यपरायणता का नाम ही व्यवहार नय है जिसका अधिकारी सराग सम्यग्दृष्टि है ।" उपरोक्त छन्द का अर्थ व अभिप्राय विवेकोदय ग्रन्थ में पाठक देख सकते हैं । निश्चय-मोक्षमार्ग - "निश्चयनय को अपनाकर के शुक्ल ध्यान में हो लवलीन । आत्मभावना के सिवाय तब और भाव सब होय विलीन ॥ उसको जाने उसको माने उसको ही पहिचाने है । करना तो हो दूर कर्म का उसका यो बल माने है ॥56॥ उपरोक्त वर्णन से यह बात सामने आती है कि व्यवहार-मोक्षमार्ग गति का नाम है। तो निश्चय मोक्षमार्ग यति (विराम) का नाम है । जैसे पथिक अपने गन्तव्य की ओर गमन करता हुआ उसकी प्राप्ति पर थम जाता है निश्चल हो जाता है उसी प्रकार व्यवहार-मोक्षमार्ग कर्तव्यपरायणता अर्थात् यथेष्ट क्रिया के द्वारा, गति के द्वारा निश्चल पद रूप निश्चय-मोक्षमार्ग या निश्चय-कारण समयसार में स्थित हो जाता है । यदि और गति की संगति में भी कार्य की सिद्धि होती है । लक्ष्यहीन गति गर्त में भी पटक सकती है निरर्थक भी हो सकती है एवं विध ही केवल लक्ष्य के चिन्तन अथवा गुणगान से बिना क्रिया के कोई लाभ नहीं है । भोगोन्मुखी प्रवृत्ति को हटाकर योग से सक्रिय होना पड़ेगा । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने कहा भी है -

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