Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 34
________________ 27 और इसके होते आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण नहीं होता वहाँ पर भी आत्मा के गुण से गुणान्तर और पर्याय से पर्यायान्तर का विचार होता ही रहता है । हाँ, बाह्य वस्तुओं में तेरा-मेरा, भला-बुरा मानते हुए जो विकल्प उठते थे सो वहाँ नहीं होते । इसीलिए उसे निर्विकल्प समाधि कहा है । टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य ने भी आत्मीक गुणों का भिन्न-भिन्न प्रतिभासात्मक भेदरूप व्यवहार का नहीं किन्तु अन्य द्रव्यों को लेकर जो संकल्प-विकल्प होते हैं तद्प व्यवहार का निषेध किया है देखो, "यः खलु परमार्थ मोक्ष हेतोतिरित्तों व्रततपः प्रभृति शुभकर्मा केषाचिन्मोक्षहेतुः स सर्वोऽपि प्रतिषिद्धस्तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात्तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभावात् परमार्थमोक्षहेतोरेवैक द्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभावात्" ऐसा लिखा है अर्थात् अपने इस शरीर से किसी का बिगाड़ न करना, सर्दी-गर्मी की बाधा, भूख-प्यास की वेदना का सह लेना इत्यादि आत्मस्वभाव से भिन्न सिर्फ वाह्य के व्रत और तप को ही जिन किन्हीं लोगों ने मोक्ष का कारण मान रक्खा हो तो सब यहाँ जैनशासन में निषिद्ध है, वह मोक्ष का हेतु नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ आत्मा का परिणमन नहीं है वह तो आत्मा से भिन्न द्रव्य शरीर मात्र की क्रिया है । किन्तु जबकि इच्छा का न करना आत्मा का स्वभाव है ऐसा समझते हुए होनेवाली भोजन की इच्छा को न होने देने रूप या न होने रूप जो तप हुआ सो भेद प्रतिभासरूप होने से व्यवहार कहलाता है । किन्तु आत्मस्वभावमय है इसलिए मोक्षमार्ग है धर्म ही है इसके होते हए शरीर से जो भोजन नहीं किया जाता वह उस व्यवहार धर्म का भी सहयोगी होने से बाहरी तप कहलाकर उपचार धर्म कहा जावे तो क्या बुरी बात है । जो बात जिस प्रकार है उसको उस प्रकार कहना या जानना सो तो सम्यग्ज्ञान है आत्मा का स्वभाव ही है । प्रत्युत इस प्रकार के भेद प्रतिभास को भी आत्मा का धर्म न मानना विकल्प कहकर अधर्म बताना, एकान्त अभेद को ही आत्मधर्म स्वीकार करना तो घोर मिथ्यात्व है आत्मा को अज्ञान स्वीकार करना है।" पू. आचार्य ज्ञानसागरजी ने उपरोक्त जो निश्चय-व्यवहार-मोक्षमार्ग की चर्चा की है वह बड़ी सटीक है । उन्होंने आर्ष-परम्परा और आचार्यों के मन्तव्य को कहीं भुलाया नहीं है प्रत्युतः स्थान-स्थान पर प्रकट किया है । आवश्यकतानुसार उद्धरण भी दिये हैं । तत्समयप्रचलित मिथ्या एकांत मान्यताओं का खंडन मधुर शैली में किया है । जैन परंपरा में मार्ग ग्रहण शैली यह है कि एक समय एक हाथ से जिस भाव को ग्रहण किया जाता है अन्य समय में दूसरे हाथ में रखकर छोड़ दिया जाता है । मोक्षमार्ग में व्यवहार और निश्चय यानी शुभ व्रतादि की ओर निर्विकल्प भाव की यह रीति है । निर्विकल्प भाव भी मार्ग है मंजिल नहीं वह भी परमपद प्राप्त होने पर नहीं रहता । कोई अपूर्व दशा है सो सदाकाल रहती है । आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने मोक्षमार्ग में ग्रहण त्याग का क्रम बतलाते हुए लिखा है - अपुण्यमव्रतैपुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि परित्यजेत् ॥ समाधिशतक-83॥ अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत् तान्यपि संप्राप्य परमपदमात्मनः समा. 840.

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