Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 22 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण मार्गणास्थान आदि आत्मा में ही है । जैसे स्वर्णपाषाण में सोना होना सत्य है तथा स्वर्णपाषाण को भी सोना संज्ञा मिल जाती है परन्तु पाषाण को अलग कर जो शुद्ध स्वर्ण प्राप्त होता है तथ्य तो वही है । पदार्थ के सत्य और तथ्य यानी मूल रूप को कथन करनेवाले व्यवहार और निश्चय नय भी सत्य और तथ्य रूप से अंगीकार करने योग्य है । व्यवहार तो दूल्हे के साथ के यात्रियों को भी बारात कहता है और ठीक भी है; लोकमान्य है किन्तु निश्चय नय तो मात्र दूल्हे के गमन को ही वरयात्रा कहता है । आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के शब्दों में - "वर्णादिगुणस्थान पर्यन्त भाव जिनका कि वर्णन समयसारजी की गाथा नं. 50 से 55 तक में किया हुआ है वे सब निश्चय नय की अपेक्षा में जीव के नहीं हैं, व्यवहार नय को लेकर ही वे जीव के माने गये हैं । मतलब यह है कि संसारी आत्मा के साथ में उन सबका अनादिकाल से क्षीर-नीर की भाँति सम्बन्ध विशेष हो रहा है । (सत्य के दर्शन) किन्तु जीव का आत्मभूत लक्षण तो उपयोग अर्थात् देखना-जानना ही है (तथ्य दर्शन)। " गाथा नं. 56 से 57 का यह भाव है । अब व्यवहार कैसे होता है सो बताते हैं - "पथ को लुटता कहे पथिक को सुन करके जैसे । कर्मभाव को जीवभाव बतलाया जाता है वैसे ॥ स्थूल दृष्टि से छद्मस्थों के लिए जिनेश्वर वाणी में । फिर भी तिल से तैल जुदा होता विवेक की वाणी में ॥37॥ ___ आचार्यश्री का अभिप्राय व्यवहार यानी संयोग रूप को सत्य के रूप में एवं तादात्म्य को तथ्य (हार्द) के रूप में स्वीकार करता है । निम्न पद्य भी दृष्टव्य है "एकेन्द्रियादि नाम जीव के नामकर्म के निमित्त से । गुणस्थान भी मोहकर्म को लेकर होवे जीव विषै ॥ अतः शुद्धनय से न जीव के हो सकते हैं वे सब भी । मतलब यह है कि पार इनसे होगा होगा वह शुद्ध तभी 140॥ ऐसे जीवाजीव को भेदज्ञान से चीर । केवल आत्माधीन हो वही विश्व में वीर ॥41॥ ___ यहाँ उनका आशय है कि सत्य और तथ्य में से विवेकोदय के द्वारा जो तथ्य को ग्रहण करता है, आत्माधीन होता है वही वीर है । व्यवहार और निश्चय दोनों ही पक्ष है । वस्तुस्वरूप को समझने के लिए विभिन्न भुमिकाओं में इनकी उपयोगिता है । कोई नय न हेय है न उपादेय । एकांगी प्रवृत्ति अपथ्य है, हानिकारक है । नयचक्र का प्रयोग निष्पक्षता से ही किया जा सकता है । सापेक्षता में जो पथ्य होता है वही निरपेक्षता में अपथ्य हो जाता है । मरण का कारण होता है । कहा भी है -

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106