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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
21 कोहुवजुत्तो कोहो, माणुवजुत्तो य माणमेवादा ।। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो 130 समयपाहुड॥ ।
- क्रोध-मान-माया-लोभ से उपयुक्त आत्मा स्वयं उन्हीं रूप है अर्थात् विकृत अशुद्ध है; शुद्ध नहीं है क्योंकि द्रव्य पर्याय से तन्मय होता है । ऐसा नहीं है कि रागद्वेषादि विकार पर्याय में हैं द्रव्य में नहीं । सम्पूर्ण विकार सुधार का आत्मा तो द्रव्य ही है । कहा भी है
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयत्ति णिद्दिटुं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धमो मुणेदव्वो ॥प्रवचनसार-8॥ जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणाम सब्भावो ॥१॥ -- - जिस समय द्रव्य जिस रूप से (पर्याय से) परिणमन करता है उस समय वह उससे तन्मय होता है । जब जीव शुभरूप से या अशुभरूप से परिणमन करता है (अशुद्ध रूप से) उस समय वह स्वयं शुभ-अशुभ होता है और जब शुद्धरूप से परिणमता है तब शुद्ध होता है (पहले सदैव नहीं) क्योंकि यह परिणाम स्वभावी है । इसमें विभाव व स्वभाव दोनों परिणमन की शक्ति है ।
___ - इससे स्पष्ट है कि आचार्य ज्ञानसागरजी का मन्तव्य कितना आगमानुकूल एवं सामयिक है । कतिपयजन निश्चय के एकान्ती होकर अपने को सर्वथा शुद्ध मानते हैं उनका मत उन्हें निरसन करना पड़ा।
आचार्य ज्ञानसागरजी की पैनी दृष्टि, समाज एवं साधुवर्ग के प्रति वात्सल्य का परिणाम रहा कि उन्होंने अपने वाङ्मय में कानजी मत को निश्चयैकान्त मान्यता का निरसन नय निरूपण की प्रत्येक विधा में किया है ।
नेपथ्य, कथ्य, पथ्य, सत्य, तथ्य, अपथ्य - अनन्तधर्मात्मक पदार्थ होने के कारण उसका सम्पूर्ण अस्तित्वस्वरूप नेपथ्य की भाँति अवर्णनीय है । शब्द उसकी सीमा को स्पर्श नहीं कर पाते । कहते जरूर हैं पर-पदार्थ का यथार्थ नहीं कहते । शब्द की परिधि से बाहर होने के कारण पदार्थ को नेपथ्य-गत कहना ठीक होगा । हाँ, उसका अनुभव हो सकता है उस अनुभव को व्यक्त करना एकांगी शब्द परिणति है । यह नय प्रयोग से संभव होता है । परस्पर विरोधी धर्मों को सापेक्षता से प्रकाशित करना अनेकांत है । आत्मतत्व भी एवंविध वर्णनीय है ।
__ आचार्य ज्ञानसागरजी का कथ्य अत्यन्त वात्सल्यपूर्ण रूप से माता द्वारा परोसी गई थाली के पथ्य के समान हितकर है । उनके वाक्य अनुभव के वाक्य हैं । विवेकोदय क्या उनका समस्त वाङ्मय रोगहरण औषधि है । नय विषयक वर्णन से ज्ञात होता है कि वे व्यवहार नय को सत्य मानते हैं एवं निश्चय को तथ्य । व्यवहार के द्वारा वर्णितस्वरूप आकाश कुसुम के समान अस्तित्वहीन नहीं है उन्होंने ऊपर व्यवहार नय का विषयभूत विकार (अशुद्धता) को वास्तविक रूप से आत्मा में ही स्वीकार किया है । उन्होंने लिखा है कि गुणस्थान,