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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
प. पू. आचार्य ज्ञानसागरजी ने चारों अनुयोगों में ग्रन्थ रचना की है । प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ में अनेकान्त एवं सभी नयों का सुमेल है । तथापि ग्रन्थ रचना विभिन्न मुख्य नयों की मुख्यता लिए हुए है । इसे निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है ।
दयोदय, जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, भद्रोदय, मुनि मनोरंजनाशीति, ऋषभावतार, भाग्योदय, गुणसुन्दर, वृत्तान्त इन ग्रन्थों में उपचरित असद्भूत व्यवहार नय एवं अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय की मुख्यता है ।
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सम्यक्त्वसार शतकम्, तत्त्वार्थसूत्र टीका, सद्भूत व्यवहार नय की मुख्यता लिए हुए है । एवंविध ही विवेकोदय, समयसार प्रवचनसार प्रतिरूपक, निश्चय नय की मुख्यता लिए हैं । इनमें अशुद्ध निश्चय नय और शुद्ध निश्चय नय दोनों दृष्टियों का विवेचन है । अध्यात्म में अशुद्ध निश्चय भी व्यवहार माना गया है । इन आध्यात्मिक रचनाओं में पाठक को सर्वत्र निश्चयैकान्त से सावधान किया गया है ।
देवागम स्तोत्र, नियमसार, अष्टपाहुड में सद्भूत व्यवहार नय की मुख्यता है । यद्यपि इनकी कृतियों को एक नय या दो नयों में बांधना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि प्रत्येक वाक्य-समूह ही अनेकांत को लिए है फिर भी उपरोक्त वर्गीकरण मोटे रूप में ही मान्य है ।
यहाँ कतिपय ग्रन्थों को लेकर आ. ज्ञानसागरजी के नय विवरण को दृष्टिगत करना अभीष्ट होगा ।
11. विवेकोदय
यह आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की प्रसिद्ध कृति समयप्राभृत का पद्यानुवाद है । ग्रन्थ के विषय के अनुसार यह नय समुद्र ही है । पद्यों का स्वरूप तो गाथाओं के अनुरूप ही है जो कि कुन्दकुन्द स्वामी के मन्तव्य का सफल प्रकाशक है । पू. आ. ज्ञानसागरजी ने इसकी गद्य में भी विवेचना की है इसी विवेचना में उनकी नय दृष्टि अवलोकित की जा सकती है । कतिपय स्थल यहाँ उद्धृत कर उनके नय कौशल को समझना उपयुक्त रहेगा।
व्यवहार
व्यवहार की उपयोगिता वर्णित करते हुए आ. पृष्ठ 12 पर लिखते हैं " में फँसे हुए संसारी जीवों को व्यवहार के द्वारा ही परमार्थ का उपदेश दिया जाता है जैसे कि सीढ़ियों द्वारा ही छत पर पहुँचा जाता है ऐसा गाथा नं. 8 में स्पष्ट लिखा है 'तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।' अर्थात् जो लोग निश्चय को ही उपयोगी मानकर व्यवहार की अवहेलना कर बैठते हैं व पूरे गलती पर हैं। हाँ, जो लोग सिर्फ व्यवहार को ही अपनाये रहते हों निश्चय की तरफ जिनका रुख ही न हो वे भी भूले हुए हैं ।" यहाँ आचार्यश्री की गवेषणा दोनों नयों की सार्थकता रूप उदाहरण सहित प्रस्तुत की गई है ।
व्यवहार श्रुतकेवली के माध्यम से व्यवहार की उपयोगिता निम्न में दृष्टव्य है
"द्वादशांग का ज्ञाता होकर शुद्ध श्रुतकेवली उसे ही कहिए और ठौर
स्वात्मलवलीन बने । मन नहीं सने ॥