Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 25
________________ 18 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण इत्येतज्जीवतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेष तत्त्वै समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥292॥ ____ - जो शेष तत्वों, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर/निर्जरा और मोक्ष - इन छ: के साथ अर्थात् इनको भी जानते हुए जीव तत्त्व की श्रद्धा करता है, उसको जानता है व विरक्त होता है वही निर्वाण का भाजन होता है । इससे स्पष्ट है कि अकेले आत्मज्ञान की संभावना मोक्षमार्ग में नहीं है एवं एक नय का एकान्त दुराग्रह आचार्य ज्ञानसागरजी के द्वारा निषिद्ध किया गया है । वस्तुतः ज्ञान की स्वपर प्रकाशकता व्यवहार और निश्चय दोनों नयों पर आधारित है । सम्पूर्ण जैन वाङ्मय ही दोनों नयों के सम्यक् सुमेल से आपूर्ण है कहा भी है, "उभय नयायत्ता हि पारमेश्वरी देशना ।" आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के वस्तु व्याख्यान में, नय निरूपण में निश्चय-व्यवहार की गौणता एवं मुख्यता तो पाई जाती है, निषेध नहीं। वे जिनमत का प्रचार करते हुए कहीं भी किसी नय को नहीं छोड़ते न पक्ष ही ग्रहण करते हैं । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने आत्मख्याति में एक गाथा उद्धृत की है जो निम्न है - जइ जिणमयं पवजह ता मा ववहार . णिच्चये मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण रण तजं ॥ गाथा 12 स. प्रा. टीका ॥ ___- यदि जिनमत का प्रचार (प्रवर्तन) चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों में से एक को भी मत छोड़ों क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ का लोप होगा और निश्चय के बिना तत्त्व का । आचार्य ज्ञानसागरजी तीर्थ और तत्त्व दोनों को साथ लेकर चलते हैं । उनके तीर्थ और तत्त्व की एकता उनके जीवन में ही परिलक्षित होती है । क्योंकि श्रमण ही व्यवहार मार्ग (तीर्थ) के द्वारा तत्त्व अर्थात् निश्चय की सिद्धि करता है । गृहस्थ परमार्थ निश्चय का श्रद्धालु तो है कि निश्चय का साधक नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्द समयप्राभृत में कहते मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवदृन्ति । परमट्ठमस्सिदाणं दु जदीण कम्मक्खओ होदि 163॥ -- निश्चयार्थ को छोड़कर विद्वान् (गृहस्थ) व्यवहार से प्रवर्तन करते हैं दूसरे अर्थ के अनुसार (ववहारे से ण अलग अंकित करने पर) विवेकी व्यवहार से प्रवर्तन (आचरण) नहीं करते । परमार्थ के आश्रित यतीश्वरों का ही कर्मक्षय होता है । अन्यत्र भी श्रमण को तो निश्चय और व्यवहार दोनों का अधिकरण कहा गया है । गृहस्थ तो व्यवहार के ही आश्रित है उसके लिए तो व्यवहार ही शरण हैं अर्थात् वह इसके द्वारा ही आत्म-कल्याण करता हुआ परम्परा से श्रमणत्व को प्राप्त कर मोक्षमार्ग का निश्चय रूप प्राप्त करता है। यदि गृहस्थ अवस्था में ही निश्चय, जिसे साक्षात् मोक्षमार्ग कहते हैं, प्राप्त हो जाय तो तीर्थंकरों को भी अनेक पूर्वजन्मों में व इस जन्म में श्रमणत्व अङ्गीकार करने की क्या आवश्यकता थी।

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