Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 24
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 17 - केवली भगवान् व्यवहार नय से सबको जानते-देखते हैं और निश्चय नय से अपनी आत्मा को जानते हैं । आ. ज्ञानसागरजी का मन्तव्य इसी गाथा का अभिप्राय सूचित करता है । वस्तुस्थिति यह है कि अपने को जानना ही पर का जानना है । यहाँ संक्षेप में ज्ञातृक्रिया पर दृष्टिपात करते हैं । सम्यक्त्वसारशतकम् के उक्त प्रकरण से ठीक पूर्व पृष्ठ 153 पर ही आ. ज्ञानसागरजी ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय की मंगलाचरण रूप निम्न गाथा उद्वृत्त की है, एवं उसका स्पष्टीकरण भी दिया है । उसी के माध्यम से ज्ञातृक्रिया जानना अभीष्ट है । तज्जयतुं 'परमज्योतिः 1 समं समस्तैरनन्तपर्यायैः दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥1॥ वह केवलज्ञान रूप परम ज्योति विजयी हो जो समस्त द्रव्यों की सम्पूर्ण अनन्त पर्यायों के बराबर है । जैसे दर्पण में पदार्थ प्रतिबिम्ब होते हैं उसी प्रकार ज्ञान में सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं । ज्ञान - ज्ञेयाकार परिणमन करता है । प्रवचनसार के अनुसार ज्ञान में पदार्थों के आकार को ग्रसित करने की, पीने की शक्ति है और ज्ञेय पदार्थों में अपने आकार को ज्ञान में फेंकने की शक्ति है । ज्ञान का विषय होने की शक्ति है । यह स्वभाव से ही पदार्थों में प्रमेयत्व नाम का गुण कहा जाता है । जानने की क्रिया का मतलब ही पदार्थों at प्रतिबिम्ब या झलकाना है । आ. अमृतचन्द्रजी ने दर्पण की भांति ज्ञान - ज्योति का उल्लिखित किया है । जैसे दर्पण अपने स्थान पर रहता है उसी प्रकार ज्ञान- ज्ञेयों में चलकर नहीं जाता। जैसे दर्पण के सम्मुख वस्तु उसमें झलकती है, उसी प्रकार पदार्थ ज्ञान में झलकते हैं । यह प्रतिविम्बन दर्पण या ज्ञान की स्वच्छता के कारण ही होता । जैसे दर्पण अमुक पदार्थों के आकार परिणमन करते हुए भी उस पदार्थ रूप नहीं हो जाता उसी प्रकार ज्ञान भी ज्ञेयाकार परिणमन करते हुए ज्ञेय पदार्थ रूप नहीं हो जाता । 1 I केवली भगवान निश्चय नय से अर्थात् तादात्म्य रूप से अपनी आत्मा को देखते जानते हैं । जिस अपनी आत्मा को वे जानते हैं वह समस्त ज्ञेयाकार रूप परिणत है क्योंकि ज्ञप्ति क्रिया का स्वरूप ही यह है । अतः समस्त ज्ञेयों को जानना सहज रूप में हो जाता है । जैसे जो दर्पण को देखता जानता है वह उसके प्रतिविम्बित अपनी आकृति को भी उसी समय देख रहा है । आकृति को देखना अवास्तविक नहीं है क्योंकि उसे देखकर ही धब्बे को छुडाता है । ठीक इसी तरह अपनी आत्मा को जानना जितना वास्तविक है उतनी ही वास्तविकता केवली की सर्वज्ञता है भले ही व्यवहार नय का विषय हो । चूंकि केवली पदार्थों को तदाकार प्रतिविम्बित करते हैं तद्रूप नहीं हो जाते हैं । पदार्थों से भिन्नतया हैं इसी हेतु इसे व्यवहार दृष्टि कहा गया है । अतः नियमसार में कुन्दकुन्द स्वामी ने एक ही गाथा में आत्मज्ञता और सर्वज्ञता निरूपित की है वह वास्तविक है । ऊपर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने शंका के उत्तर में खुलासा किया है। उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि जो पर को नहीं जानता वह अपने को नहीं जान सकता । इसके लिए तत्त्वार्थसार की यह उक्ति दृष्टव्य है. - .

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