Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 18
________________ 11 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण ___उपादान – 'उप किलाभिन्नत्वेदानं धारणमधिकरणं तदुपादानं' अर्थात् अभिन्न रूप में एकमेक रूप में आदान अर्थात् धारण करना । अधिकरण आधार एवं अभिन्न रूप से एकमेक होते हुए जो प्राप्त करनेवाला हो वह उपादान होता है । निमित्त - "नियमेन मीयते अङ्गीक्रियते तन्निमित्तं सहायकं वस्तु । यानी निमित्त का अर्थ होता है सहयोग देनेवाला, सहायक, मददगार और जहाँ मदद की जाती है उसको नैमित्तिक कहते हैं।" ... (सम्यक्त्व सार शतक, पृ. 15) 9. नय-स्वरूप वर्णन आचार्य ज्ञानसागरजी ने नयों के स्वरूप का वर्णन आर्ष सम्मत एवं संस्कृत और हिन्दी गद्य-पद्य दोनों में यथा स्थान बड़ी सुबोध शैली में किया है। प्रवचनसार का संस्कृत श्लोकों में और हिन्दी पद्य-गद्य (स्वोपज्ञ हिन्दी टीका) में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का वर्णन करते हुए (गाधा 19-20) में लिखते हैं - "द्रव्यार्थपर्याभ्यां नयाभ्यामिति वस्तुनि । उत्पत्तिः सन्मयी यद्वा लक्ष्यतेऽसावसन्मयी ॥19॥ (आचार्य ज्ञानसागरजी) सारांश - साधारण विचारधारा को सामान्य दृष्टि या द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । और असाधारण विचारधारा को विशिष्ट दृष्टि या पर्यायार्थिक नय कहते हैं । द्रव्यार्थिक नय से देखने पर वस्तु जो पहले थी वही अब भी है और आगे भी रहेगी किन्तु पर्यायार्थिक नय से देखने पर वस्तु जैसी पहले थी वैसी अब नहीं है और यही है एवं आगे भी कुछ और दी हो जावेगी ।" समयसार का पद्यानुवाद हिन्दी में आचार्य ज्ञानसागरजी ने 'विवेकोदय' नाम से किया है एवं वहाँ विशेषार्थ स्पष्टीकरण के रूप में किया गया है । वे सामान्य रूप से सुपाच्य शैली में गाथा नं. 11 की व्याख्या करते हुए लिखते हैं, (पृष्ठ 11) "आचार्य देव ने समयसारजी की इस ग्यारहवीं गाथा में निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार को अभूतार्थ बतालाया है। "भूतः स एवार्थःप्रयोजनं यस्य स भूतार्थो निश्चयनयःसामान्यविषयः द्रव्यार्थिक इति ।अभूतोऽपूर्व एव वर्तमानोऽर्थः प्रयोजनं यस्य सोऽभूतार्थो पर्यायार्थिको विशेषविषयो व्यवहारनय इति ।" (नवीन विशद व्युत्पत्ति) अर्थात् हर एक ही वस्तु में एक सामान्य और दूसरा विशेष दो धर्म होते हैं वस्तु उन दोनों प्रकार के धर्मों का आधार होती है । ....... इनमें सामान्य को विषय करनेवाला तो निश्चय नय है..... परन्तु व्यवहार नय की निगाह वस्तु के नयेपन पर जाती है वह वस्तु के अन्दर पर-संयोगादि के द्वारा जो बिगाड़ सुधार होता है उसको बतलाता रहता है । अब व्यवहार नय को मानकर एवं उसके द्वारा निर्दिष्ट अपने आप में होने वाले विकार को दूर हटाकर जो आदमी निश्चय नय के द्वारा निर्दिष्ट अपने निर्विकार स्वरूप को प्राप्त करता है वही सम्यग्दृष्टि सच्चा है, भला है यही 'भूतार्थं श्रयित्वा खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति नीवः' इसका मतलब है प्रत्युत अपने आप में वर्तमान होते हुए भी विकार को न मानकर

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