Book Title: Nandanvan Kalpataru 1999 00 SrNo 01
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ श्रीअभिनन्दनजिनगीतिः ॥ श्रीअभिनन्दन! जगदानन्दन! संवरनन्दन! श्रेष्ठ! रे। विश्वविहितवन्दन! सुखस्यन्दन! दुरितनिकन्दन! प्रेष्ठ! रे।।१।। गतिचतुष्कनिर्मूलनकारण! चतुर्धर्मसन्धारण! रे। तुर्यजिनेश्वर! तुर्ये ध्याने स्थापय मां भववारण! रे ॥२॥ भवनीडेऽहं कृतबहुपीडे निर्वीडं क्रीडामि रे। निजमात्मानं कृतपाप्मानं कर्मभिरथ पीडामिरे ॥३॥ इत्थं मम दुरितैर्मयका मम मूर्धनि सृष्टं शूलं रे। पाहि पाहि मां त्राणशील जिन! शीघ्रं नय भवकूलं रे ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92