Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ पूजन-दर्शन से आनंदित हृदयवाले भवसिद्धियों का पूजा और दर्शन द्वारा होनेवाले सम्यग्दर्शन, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, निर्वाण (मोक्ष) आदि लाभ की प्राप्ति को रोक दिया। उपरोक्त शास्त्रपाठों के उपरांत श्राद्धविधि, द्रव्यसप्ततिका, आदि शास्त्र एक स्वर से कह रहे हैं कि देवद्रव्य का उपयोग जिनालय का जीर्णोद्धार, जिनपूजासत्कार, आंगीरचना, स्नात्रपूजा-जिनभक्ति महोत्सव आदि में हो सकता है । यहाँ आदि का अर्थ 'नूतन जिनमंदिर निर्माण' का कार्य देवद्रव्य से किया जा सकता है ऐसा समझना चाहिए । तात्पर्य-सारांश या रहस्य यह है कि एक भी शास्त्र देवद्रव्य से "नूतन जिनमंदिर का निर्माण किया जा सकता है" ऐसा नहीं कहता। परंतु संविग्नगीतार्थ आचार्य भगवंतों ने इस आदि शब्द से "नूतन जिनालय का निर्माण देवद्रव्य से किया जा सकता है" ऐसा अर्थ-निर्णय दिया है । देवद्रव्य के द्वारा जिनालय के जीर्णोद्धार के साथ-साथ स्पष्ट शब्दों में देवद्रव्य से जिनालय में पूजा-सत्कार (आंगी), स्नात्रपूजा, जिनभक्ति महोत्सव हो सकते हैं ऐसा बताया ही है । गीतार्थ आचार्यों ने भी संवत १९९० के पट्टक के द्वारा ऐसा निर्णय दिया ही है । अर्थात् देवद्रव्य का उपयोग शास्त्रोक्त कार्यों के अतिरिक्त अन्य कहीं भी याने उपाश्रय, पाठशाला, ज्ञानभंडार, गुरुमंदिर, आयंबिल खाता में या साधर्मिक उत्कर्ष आदि में हो ही नहीं सकता । तो फिर स्कूलकालेज-अस्पताल की बात तो सर्वथा दूर ही रहेगी । सिद्धांतमहोदधि पूज्यपाद आचार्य श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहब ने भी अपने विद्वान शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ करके एक निर्णय दिया ही था कि देवद्रव्य से जिनपूजा आदि कार्य किये जा सकते हैं। इसलिए श्री संघो के लिए देवद्रव्य में से थोड़ा धन (चार आनीछः आनी के बराबर) साधारण खाते में ले जाना सर्वथा अनुचित है । यह सब सोचकर देवद्रव्य की रक्षा करें, वृद्धि करें और शास्त्रकथित मार्ग पर खर्च करें । इस प्रकार कार्य करनेवाला यावत् तीर्थंकर नामकर्म का बंध करनेवाला बनता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66