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गुरु का बहुमान जितना अधिक उतनी ही देव-गुरु की कृपा उस पर अधिक ऐसा सहजरूप से समझा जा सकता है ।
नमुत्थुणं सुत्र में भी गणधर भगवंत अरिहंत भगवंत को अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, रागद्वेष पर विजय दिलानेवाले, संसारसागर से पार उतारनेवाले, सर्वज्ञता देनेवाले तथा सब से बढ़कर-मोक्षप्रदाता कहकर भगवत् तत्त्व का कितना अद्भूत अपना हृदय-बहुमान व्यक्त करते हैं ! कठिनतम मोक्षमार्ग की साधना ऐसे पूज्यों के अनुभाव-प्रभाव से ही संभव होती है ऐसा स्वीकार भक्त का हृदय निरंतर करता ही है ।
देव-गुरु को हृदय में जितना अधिक स्थापित किया जाय, (उनके महत्त्व का स्वीकार किया जाय) उतना कर्मों का क्षयोपशम अधिक होने लगता है तथा मान कषाय आदि औदायिक भाव मन में प्रवेश पा नहीं सकते । देवतत्त्व का और गुरुतत्त्व का विनयबहुमान भाव से ही भक्तहृदय गुणस्थानक की श्रेणि पर आगे आगे जा सकता है ऐसा खयाल भक्तहृदय में हो तो वह बहुत अच्छा है ।
(२) 'श्री शत्रुजय माहात्म्य' शास्त्र के श्रवण की महिमा 'हे जीवों ! तप, जप, दान तथा सत्फलों का प्रयोजन ही क्या है ? तुम सब एक बार श्री शत्रुजयगिरि के माहात्म्य का श्रवण करो ! धर्मप्राप्ति की इच्छा से सभी दिशाओं में तुम सब परिभ्रमण किस हेतु से कर रहे हो ? केवल एक बार जाकर श्री पुंडरीकगिरि की केवल छाया का ही स्पर्श करो ! इसके अतिरिक्त कुछ भी करने की आवश्यक्ता नहीं है । इस मानवजन्म को प्राप्त करके तथा अनेक शास्त्रों को श्रवण करके उसके परिणाम के रूप में जो कुछ करना है, वह सब कुछ श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की कथा का श्रवण करने से सफल बनता है । अतः तुम सब इस प्रकार श्रवण कार्य करके अपना जन्म सफल करो !'
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