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सुनहरी आर्षवाणी देवद्रव्य के भक्षण के कारण रुद्रदक्ष ब्राह्मण बीच बीच में तीर्यंच का भव करके सातों नारकी में घोरातिघोर दु:ख पाया। बाद में मनुष्य बनकर आलोचना-प्रायश्चित से शुद्ध हुआ । (द्रव्य सप्ततिका) देवद्रव्य के भक्षण से सागर शेठ बीच बीच में तीर्यंच गति में भव करके सातों सात नारकी में दो दफे नरक की जालीम-घोर-भयंकर वेदना पाया । उपरांत हजारो-हजारो तिर्यंच गति के कष्टमय जन्म पाया । (द्रव्य सप्ततिका) प्रभुद्रव्य के दीपक का खुद का काम में अंगत उपयोग से श्राविका ऊंटनी बनी । प्रभुद्रव्य भक्षण-उपेक्षण से तोबा ! तोबा! देव के धन से धनवान बनने की इच्छावाला मनुष्य सचमुच मूर्ख है, वह जिन्दा रहने की आशा से ज़हर खाने का काम करता है । अन्याय से अर्जन किया हुआ धन दस साल तक अपनी पास रहता है, ग्यारहवें वर्ष तो मूल धन सहित वह नाश हो जाता है । मनुष्य को चाहिए कि वह नीति से उपार्जन किया हुआ धन से अपनी आत्मा की रक्षा करें । जो व्यक्ति अन्याययुक्त धन से जीवननिर्वाह करता है, वह सर्व (सत्) कर्म से बहिष्कृत है ।। अन्यायोपार्जित धन अनेक दोष पैदा करता है । न्याय-नीति के अर्जित धन से किया हुआ धर्म निर्व्याजनिष्कपट होता है । जहाँ धन न्याय-नीतियुक्त होता है वहाँ लक्ष्मी का वास होता
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