Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् अंचलगच्छेश मेरुतुंगसूरीश्वरजी म. लिखित श्री नाभाकराज चरित्र (कथा) KONOMMOREATS भावानुवाद-संपादन न्यायविशारद पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा.ना शिष्य पं. श्री गुणसुंदरविजयजी गणी Jain Education international For private Perdose Only . ARTICACAD Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् अंचलगच्छेश मेरुतुंग सूरीश्वरजी लिखित श्री नाभाकराज चरित्र .. Kindness 859900 SAMA BREARRINKA भावानुवाद-संपादन : न्यायविशारद पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. के शिष्य पं. श्री गुणसुंदरविजयजी गणी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका moji ....... १. प्राक् कथन.. २. प्रस्तावना - पं. श्री भुवनसुंदरविजयजी गणी.... ग्रंथ रचयिता का संक्षिप्त परिचय .. ४. श्री नाभाकराज चरित्र. श्री शत्रुजयतीर्थ महिमा............ ............... देवद्रव्य रक्षण-भक्षण के विषय में समुद्र और उसका भाई सिंह की कथा. ७. सुकृत का पुण्यप्रदाता क्या अन्य को सुकृत का दान किया जा सकता है ? ..... २६ छोटे भाई सिंह की दुर्गति . ................ ९. देवद्रव्य का भक्षण सेठ को श्वान बनाता है................. १०. देवद्रव्य का भक्षण करनेवाले नाग कुटुंबी की बरबादी ........... ३२ ११. चंद्रादित्य राजा की कथा.. १२. अंतराय कर्म किस प्रकार क्षय हुए ?............................ परिशिष्ट - (१) देवगुरु की कृपा (२) श्री शत्रुजय माहात्म्य (३) देवद्रव्य के विषय में कुछ (४) तेरे दुःख का कर्ता तू स्वयं ही (५) समुद्र-सिंह-नाग गौष्टिक का भवभ्रमण (६) देवद्रव्यविषयक शास्त्रपाठ (७) श्री जैन संघ वहिवट. प्रकाशन-प्राप्तिस्थान : श्री कुमारपाल वि. शाह, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ३६, कलिकुंड सोसाइटी, धोलका-३८७८१० (अहमदाबाद) फोन : ०७९-२३४२५४८२, २३४२५९८१ प्राप्तिस्थान : भाविन शशीकांत नवलचंद टोलिया, ३०३ सिद्धि टावर, साइबाबानगर, बोरीवली (वेस्ट), मुंबई-४०००९२ फोन : (०२२) २८६१३४१६ लागत-मूल्य : रु. ११-०० पुस्तक प्रकाशन का संपूर्ण आर्थिक सौजन्यदाता ईर्ला-मुंबई निवासी श्रुतप्रेमी एक सुश्रावक परिवार को धन्यवाद! .... ५१ - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान शासनाधिपति श्री महावीरस्वामि सर्वज्ञाय नमः श्रीमद् विजय प्रेम - भुवन भानु - जयघोष - जगच्चंद्रसूरिवरेभ्यो नमः प्राक्-कथन पू. आचार्य श्री विजय जगच्चंद्रसूरिजी महाराज के आशीर्वाद से वि.सं. २०६२ का मौन एकादशी पर्व के प्रसंग पर श्री वासुपूज्य स्वामी जिनालय, झवेर रोड, मुलुंड वेस्ट, मुंबई में ठहरना हुआ । वहाँ श्रीमद् अंचलगच्छेश मेरुतुंग सुरीश्वरजी महाराज द्वारा संस्कृत भाषा में लिखित श्री नाभाकराज चरित्र की प्रत प्राप्त हुई । उसे पढ़ा । बहुत अच्छी लगी । तीन-चार बार उसे पढ़ लिया । इसमें तीन भव्यात्माओं की कथा दी गई है । एक ने देवद्रव्य का रक्षण किया तो तीन भव में उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई, और दो आत्माओं ने देवद्रव्य का भक्षण किया तो इनको उन्नीस कोटाकोटी सागरोपम तक दुर्गति के दुःख मिले । वर्तमान समय में देवस्थान के द्रव्यों पर सरकार की नज़र बिगड़ी है ऐसा जान पड़ता है । अनेक हिन्दु मंदिर आदि के वहिवट सरकार ने अपने हाथो में ले लिए हैं । पब्लिक ट्रस्ट एक्ट जैसे कानूनों के द्वारा धार्मिक संपत्ति को अधिक से अधिक अपने अधिकार में हड़प लेने के प्रयत्न हो रहे हैं । अनेक कर - टेक्ष डाले गये हैं, अधिक डालने के लिए कार्यवाही होती रहती है । संयोग अति विषम हो गये हैं । समज़दार जैन लोग तो देवद्रव्य आदि धार्मिक द्रव्य की यथाशक्ति देखभाल - रक्षा करने के लिए तत्पर रहते ही हैं । उनकी यह समज़ अधिक दृढ़ हो इस हेतु से श्री नाभाकराज चरित्र का पठन बहुत सहायक बनेगा ऐसा सोचकर ही उसका गुजराती भावानुवाद करने के लिए प्रेरित हुआ हूँ । अब यहाँ यह हिन्दी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद भी । पहले वि.सं. १९६३ में यशोविजय संस्कृत पाठशाला, महेसाणा द्वारा इसका अक्षरशः गुजराती अनुवाद प्रसिद्ध हुआ था । देवद्रव्य आदि धर्म द्रव्य की रक्षा - प्रबंध - सदुपयोग के विषय में बहुत कुछ जानना - समझना आवश्यक है । ऐसे द्रव्य के प्रबंधकोंविश्वस्तों के लिए विशेष गीतार्थ - संविग्न गुरुओं के पास से इसकी जानकारी प्राप्त करना आज के समय में अत्यंत आवश्यक है । प्रस्तुत हिन्दी भाषांतर प्रकाशन में आशीर्वाद प्रदाता सुविशाल गच्छाधिपति पू. आचार्यदेव श्री विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. को तथा संयमैकलक्षी पू. आचार्य श्री विजय जगच्चंद्रसूरीश्वरजी म. को भाव-भक्ति-श्रद्धा सह वंदना करता हूँ । तो मुझे रत्नत्रयी की साधना में अनेक प्रकार से सहायरूप बने हुवे और प्रसन्नता से प्रस्तावना लिखने का सौजन्यवाले मेरे सहोदर तथा गुरुबंधु पू.पं. श्री भुवनसुंदरविजयजी महाराज को मैं कैसे भूल सकता हूँ ? प्रस्तुत भावानुवाद में कोई भूल हुई हो तो त्रिविधे त्रिविधे क्षमायाचना करता हूँ । संविग्न गीतार्थ पूज्यो इस विषय में लिखकर बताने की कृपा करें । गुजराती भावानुवाद का अति सुंदर हिन्दी अनुवाद करनेवाले श्रीमती सुमित्रा प्रतापकुमार टोलिया (एम.ए. हिन्दी, संगीत विशारद) धन्यवाद के पात्र हैं । पुस्तक प्रकाशन का संपूर्ण सौजन्यप्रदाता ईर्ला - मुंबई निवासी नामना की कामनामुक्त सुश्रावक परिवार की श्रुतभक्ति को भावांजलि । वि.सं. २०६२, अषाढ सुद ६ मुंबई न्यायविशारद, श्री संघहितचिंतक, १०८ वर्धमान आयंबिल ओळी के समाराधक पू. आचार्यदेव श्री विजय भुवनभानु सूरीश्वरजी म. के शिष्य पं. गुणसुंदरविजयजी गणी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतराग-सर्वज्ञ-त्रिभुवनभानु-परम सत्यवादी परमात्मने नमः ॥ प्रस्तावना देवद्रव्य भक्षण-उपेक्षण महापाप - पं. श्री भुवनसुंदरविजयजी गणी समस्त जैन शासन-जिनाज्ञा-जिनवचन द्वादशांगी में समाविष्ट है । ये वचन वीतराग, सर्वज्ञ, यथास्थित वस्तुवादी जिनेश्वर देवों द्वारा कहे गये हैं तथा चौदह पूर्वधर गणधरों द्वारा ये जिनवचन सूत्र-निबद्ध हुए हैं । सूत्र सरलता से समझ में आ सके इस हेतु से पश्चात्वर्ती चौदह पूर्वधर, संविग्न, गीतार्थ आचार्य भगवंत आदि ने इन सूत्रों पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति-टीका आदि की रचना की है । हम जैनों के लिए ये पंचांगी आगम प्राण-त्राण-आधार-जीवन तथा सर्वस्व स्वरूप हैं । ___ आगम में अर्थात् सूत्र में निबद्ध न हो फिर भी संविग्न-गीतार्थ आचार्यों की परंपरा में जो चला आ रहा हो, उसे भी सूत्र के समान ही महत्त्वपूर्ण मानकर जैनसंघ को अपनाना होता है । यह बात स्वयं आगमशास्त्र ही बताते हैं । ऐसी परंपरा-व्यवहार या आचरणा को शास्त्रों में 'जीत आचार' कहा गया है । शास्त्रों के अर्थघटन में जब मतभेद खड़े होते हैं तब सभी संविग्न-गीतार्थ आचार्य मिलकर सर्वानुमति से अथवा सर्वानुमति संभव न हो सके तब बहुमति से जो निर्णय करें वह रहस्यार्थ-तात्पर्यार्थ सकल श्री संघ में मान्य होता है । श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ के अनेक पूर्वाचार्यों ने साथ मिलकर समय समय पर पट्टक के द्वारा श्री संघ को आदेश या निर्णय दिये ही हैं कि - "भगवान श्री जिनेश्वर देव से संबंधित चढ़ावे का द्रव्य, आरति तथा अष्टप्रकारी पूजा से संबंधित चढ़ावे का द्रव्य, उपधान की माला से संबंधित द्रव्य, तीर्थमाला की उछामणी का द्रव्य आदि सब द्रव्य देवद्रव्य कहलाता है तथा उसका उपयोग भगवान श्री जिनेश्वर देव से संबंधित सभी कार्यो में अर्थात् जिनालय के जिर्णोद्धार में, नूतन जिनालय के निर्माण में, भगवान के आभूषण निर्माण Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में, जिनालय से संबंधित सारी व्यवस्था, पूजा की सामग्री-अंगरचना आदि में हो सकता है । देवद्रव्य का यह उपयोग है । तात्पर्य यह है कि देवद्रव्य पाठशाला में खर्च करना, साधर्मिक भक्ति में खर्च करना या स्कूल-कालेज-अस्पताल के लिए खर्च करना सर्वथा अनुचित है । जिनाज्ञा द्वारा निषिद्ध है ।" प्रस्तुत पुस्तक 'नाभाकराज चरित्र' में देवद्रव्य के शास्त्रकथित सदुपयोग से लाभ, पुण्य, सद्गति की प्राप्ति तथा दुरुपयोग करने से होनेवाले नुकसान, पुण्यनाश, दुर्गति की प्राप्ति आदि बातें अंचलगच्छेश आचार्य मेरुतुंग सूरिवर महाराज ने सुंदर रूप से आलेखित की है । वे पंद्रहवीं शताब्दि में अर्थात् आज से. प्रायः छे सौ वर्ष पूर्व हुए हैं । सकल श्री संघ-हितचिंतक, न्यायविशारद, पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्यरत्न तथा मेरे गुरु-लघु बंधु पूज्य पंन्यास श्री गुणसुंदर विजयजी गणिवर म.सा. के हाथों में संस्कृत भाषा में रचित यह नाभाकराज चरित्र आया । देवद्रव्य विषयक यह नाभाकराज चरित्र पढ़कर वे आनंद से झूम उठे । उन्होंने उसका साधंत भावानुवाद गुजराती भाषा में किया जो श्री संघ के समक्ष प्रस्तुत किया । इसका यह हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है । पूज्य पंन्यास श्री गुणसुंदर विजयजी महाराज साहब देवद्रव्य के दुरुपयोग के विषय में निरंतर चिंतित रहते हैं । इस कारण से वे इस विषय में बारबार लिखते हैं, एवं व्याख्यान आदि में बोलते रहते हैं । कभी शास्त्रोक्त एवं मार्गानुसारी देवद्रव्य विषयक कथन भी किसी प्रबंधकर्ता, ट्रस्टी आदि को अच्छा न लगे, तो भी इस विषय में वे अपना वक्तव्य प्रस्तुत करते रहते हैं । किंतु इसमें उनका शुद्ध आशय यही होता है कि भव्य जीव देवद्रव्य के भक्षण-नुकसान के दोष से बचें और देवद्रव्य की रक्षा के द्वारा परलोक में सद्गति प्राप्त करें । एक ओर यह अत्यंत आनंद की बात है कि जैन शासन में और विशेष कर के श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघो में देवद्रव्य के उपयोग के विषय में पर्याप्त बोध एवं जानकारी है और उसी वजह से श्री संघो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में शास्त्रोक्त रीति से स्वच्छ-सुंदर प्रबंध हो रहा है । वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेश्वरदेव के भक्त जैन श्रावक-श्राविकाओं की उदारता को भी अपार धन्यावाद है कि वे उपकारी जिनेश्वरदेव के चरणों में कृतज्ञता की भावना के साथ अंजनशलाका, प्रतिष्ठा आदि की बोलियों के द्वारा, स्वप्नों की, पालना आदि की बोलियों के द्वारा जिनालय निर्माण के द्वारा, जिनमूर्ति के निर्माण में, उपधान की माला पहनने में, तीर्थमाल पहनने में एवं भंडार आदि में उदारतापूर्वक बड़ी मात्रा में धन समर्पित करते हैं । और इसी वज़ह से श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनों के जिनालयों में सुंदरता-स्वच्छता एवं भक्तिमय प्रसन्न वातावरण अधिक देखने को मिलता है । जैनेतर लोग भी आनंदित होकर बोल उठते हैं - श्वेतांबर जैन मंदिर वास्तव में अत्यंत सुंदर होते हैं... इत्यादि । दूसरी ओर - आज के आधुनिकता के रंग में रंगे हुए, भौतिकवादी तथा शास्त्रकथित नियमों से अनजान (अथवा बुद्धि एवं क्षमता होते हुए भी जो जानना ही नहीं चाहते हैं ऐसे) कुछ जैन-श्रावक ही देवद्रव्य के विषय में मनगढंत बातें कर रहे हैं कि भगवान संबंधित धन - देवद्रव्य से गरीब जैन-साधर्मिकों का उद्धार करना चाहिए । देवद्रव्य का उपयोग स्कूल-कालेज, अस्पताल आदि के निर्माण कार्य में करना चाहिए, इत्यादि और कहीं कहीं संघ के प्रबंधकर्ता ट्रस्टी लोग देवद्रव्य का इस प्रकार दुरुपयोग करने भी लग गये हैं । यह बात अत्यंत खेदजनक है। अजैन शास्त्रों में नरक के चार मार्ग कहे हैं जो इस प्रकार हैं- (१) रात्रिभोजन (२) परस्त्रीगमन (३) बोल अचार (अथवा मांसाहार) और (४) कंदमूल भक्षण । लौकिक वेदशास्त्र में दूसरे ढंग से चार महापाप कहे हैं, जैसे कि (१) ब्रह्महत्या (२) स्त्रीहत्या (३) भृण हत्या (गर्भ गिराना) (४) गौहत्या । लोकोत्तर महान जैन शास्त्र में चार महाभयंकर पाप इस प्रकार बताये हैं । जैसे कि - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइयदव्व विणासे, रिसिघाए, पवयणस्स उड्डाहे, संजइ चउत्थ भंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥ अर्थ :(१) चैत्यद्रव्य अर्थात् देवद्रव्य का नाश करना ( २ ) साधु की हत्या करना ( ३ ) जैन शासन की हिलना करना (४) साध्वी के साथ दुराचार करना । इन चार महापापों से बोधिबीज जल जाता है । यद्यपि प्रायः कोई भी प्रबंधकर्ता ट्रस्टी या जैन व्यक्ति आदि प्रत्यक्ष रूप में भगवान संबंधित धन- देवद्रव्य अपने घर ले नहीं जाते या अपने घर में उपयोग नहीं करते, अतः इस अर्थ में कोई जैन श्रावक प्रत्यक्ष रूप से सामान्यतः देवद्रव्य का भक्षण नहीं करते, परंतु देवद्रव्य जिनालय - जिनमूर्ति, मूर्तिपूजा की सामग्री की व्यवस्था, निभाव आदि को छोड़कर साधर्मिक भक्ति पाठशाला, उपाश्रय-धर्मशाला आदि में खर्च करना अथवा तो स्कूल-कालेजअस्पताल आदि में खर्च करना यह सब देवद्रव्य का भक्षण स्वरूप ही है । और आज के भौतिकवाद के युग में कहीं, कोई जैन श्रावक - ट्रस्टी आदि देवद्रव्य के विषय में इस प्रकार सोचते भी हैं । तो कई जैन गृहस्थ ऐसा भी बोलते हैं कि स्वप्नों की बोली तो साधारण खाते में ले जानी चाहिए जिससे उस द्रव्य से उपाश्रय, धर्मशाला, पाठशाला आदि का निर्माण किया जा सके या उसका संचालन हो सके अथवा तो संघ के दुःखी जैन साधर्मिकों की भक्ति आदि कार्य किये जाय तो कोई हर्ज़ नहीं है क्यों कि स्वप्न तो त्रिशलामाता ने देखे थे और उस समय भगवान महावीर गर्भ में बालक के रूप में थे । भगवान तब तीर्थंकर नहीं बने थे । परंतु, इस प्रकार सोचना यह तो देवद्रव्य के प्रति कुदृष्टि करने समान है, क्योंकि त्रिशलामाता ने स्वप्नदर्शन नंदीवर्धन कुमार जब पेट में थे तब तो नहीं किया था, जब भगवान वर्धमानकुमार - महावीरकुमार गर्भ में आये, तब ही किया था । माता ने जो स्वप्न देखे उसमें प्रभाव तो भगवान का ही था । तदुपरांत भगवान तो सभी अवस्थाओं में भगवान ही हैं । अतः भगवान से संबंधित स्वप्नों की यह बोली का द्रव्य देवद्रव्य ही है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक संविग्न, गीतार्थ आचार्य भी "स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है" ऐसा स्पष्ट कहते हैं । इसलिए स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य ही मानना उचित है, तथा उसका उपयोग जिनालय से संबंधित सभी कार्यों में हो सकता है । परंतु जिनालय (मंदिर और मूर्ति) के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में नहीं हो सकता । प्रस्तुत पुस्तक 'नाभाकराज चरित्र' कहता है कि देवद्रव्य के विषय में शास्त्रोक्त उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी उपयोग के लिए सोचना अनुचित है, गलत है, पाप का कारण है । जैनतरों के महाभारत में व्यासऋषि भी कहते हैं : "प्रभास्व न भुंजितम्" अर्थात् भगवान से संबंधित द्रव्य का भक्षण नहीं करना चाहिए । देवद्रव्य के उपयोग से संबंधित शास्त्रपाठ (१) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं जिनायतने पूजासत्कार संभवः । __ (श्राद्धदिनकृत्य पृ. २७५) अर्थ :- देवद्रव्य होने पर प्रतिदिन जिनमंदिर में पूजा-सत्कार (आंगी) आदि संभव होता है । (२) चैत्यद्रव्यस्य जिनभवन-बिम्बयात्रा-स्नात्रादि प्रवृत्ति हेतोः हिरण्यादेः वृद्धिं कर्तुं उचिता । (श्राद्धदिनकृत्य पृ. २६१ तथा उपदेशपद) अर्थ :- चैत्यद्रव्य (देवद्रव्य) जिनमंदिर, प्रतिमापूजा, जिनभक्ति महोत्सव, स्नात्रपूजा आदि का कारण है । अतः उन प्रवृत्तियों के हेतु सुवर्ण-चांदी आदि की वृद्धि करनी चाहिए । (३) जेण चेइयदव्वं विणासि तेण जिणबिम्ब पूआईसण आणंदित हिययाणं भवसिद्धियाणं सम्मदंसणं-सुअ-ओहि-मणपजवकेवलनाण-निव्वाण लाभा पडिसिद्धा । (वसुदेवहिंडी-प्रथम खंड) अर्थ :- जिसने देवद्रव्य का विनाश किया उसने जिन-प्रतिमा के Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजन-दर्शन से आनंदित हृदयवाले भवसिद्धियों का पूजा और दर्शन द्वारा होनेवाले सम्यग्दर्शन, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, निर्वाण (मोक्ष) आदि लाभ की प्राप्ति को रोक दिया। उपरोक्त शास्त्रपाठों के उपरांत श्राद्धविधि, द्रव्यसप्ततिका, आदि शास्त्र एक स्वर से कह रहे हैं कि देवद्रव्य का उपयोग जिनालय का जीर्णोद्धार, जिनपूजासत्कार, आंगीरचना, स्नात्रपूजा-जिनभक्ति महोत्सव आदि में हो सकता है । यहाँ आदि का अर्थ 'नूतन जिनमंदिर निर्माण' का कार्य देवद्रव्य से किया जा सकता है ऐसा समझना चाहिए । तात्पर्य-सारांश या रहस्य यह है कि एक भी शास्त्र देवद्रव्य से "नूतन जिनमंदिर का निर्माण किया जा सकता है" ऐसा नहीं कहता। परंतु संविग्नगीतार्थ आचार्य भगवंतों ने इस आदि शब्द से "नूतन जिनालय का निर्माण देवद्रव्य से किया जा सकता है" ऐसा अर्थ-निर्णय दिया है । देवद्रव्य के द्वारा जिनालय के जीर्णोद्धार के साथ-साथ स्पष्ट शब्दों में देवद्रव्य से जिनालय में पूजा-सत्कार (आंगी), स्नात्रपूजा, जिनभक्ति महोत्सव हो सकते हैं ऐसा बताया ही है । गीतार्थ आचार्यों ने भी संवत १९९० के पट्टक के द्वारा ऐसा निर्णय दिया ही है । अर्थात् देवद्रव्य का उपयोग शास्त्रोक्त कार्यों के अतिरिक्त अन्य कहीं भी याने उपाश्रय, पाठशाला, ज्ञानभंडार, गुरुमंदिर, आयंबिल खाता में या साधर्मिक उत्कर्ष आदि में हो ही नहीं सकता । तो फिर स्कूलकालेज-अस्पताल की बात तो सर्वथा दूर ही रहेगी । सिद्धांतमहोदधि पूज्यपाद आचार्य श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहब ने भी अपने विद्वान शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ करके एक निर्णय दिया ही था कि देवद्रव्य से जिनपूजा आदि कार्य किये जा सकते हैं। इसलिए श्री संघो के लिए देवद्रव्य में से थोड़ा धन (चार आनीछः आनी के बराबर) साधारण खाते में ले जाना सर्वथा अनुचित है । यह सब सोचकर देवद्रव्य की रक्षा करें, वृद्धि करें और शास्त्रकथित मार्ग पर खर्च करें । इस प्रकार कार्य करनेवाला यावत् तीर्थंकर नामकर्म का बंध करनेवाला बनता है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ 'यह देवद्रव्य तो हमारे संघ का है । हमने जिनालय निर्मित किया तब हम पैसे इकट्ठे करने हेतु कहीं बाहर गये नहीं हैं । हम लोगों ने ही मिलकर हमारे पैसों से मंदिर का निर्माण किया है । इसलिए हमारे जिनमंदिर में आया हुआ देवद्रव्य हमारा (हमारे संघ का) है । तो फिर दूसरे संघ में आवश्यकता हो तो भी हम क्यों दें ?' ऐसा विचार-वचन या प्रवृत्ति भी जिनभक्ति में अंतराय करने जैसा है। उसी तरह गलत ममत्वभाव से देव आदि का धन बैंक आदि में रखे रहना भी अनुचित है, क्योंकि वर्तमान समय में परिस्थिति ऐसी है कि जिस दर से महँगाई बढ़ती जा रही है उस दर से व्याज के दर नहीं बढ़ रहे हैं, बल्कि व्याज के दर कम हो रहे हैं । इसलिए रुपये की खरीदशक्ति दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है । तदुपरांत वर्तमान परिस्थिति में जैन श्रावकों को व्याज पर देने में भी देवद्रव्य के नाश का जोखिम है । तथा कई बार आवश्यकता पड़ने पर समय पर पैसे न मिलने का अथवा पार्टी के उठ जाने का जोखिम-अनर्थ होने की संभावना भी रहती है। इसके साथ साथ अपने अपने संघ में देवद्रव्य की वृद्धि हुई है परंतु मोहवश बाहर के अन्य संघो को देना न पड़े ऐसा सोचकर संघ के नेता या ट्रस्टीगण अपने ही जिनमंदिर में चांदी के भंडार, चांदी के दरवाजे, मंदिर के बाहर के अनावश्यक गेट आदि बनवाने में, सोनेचाँदी के मुगट या खोले के दो-तीन सेट बनवाने में देवद्रव्य खर्च कर दें, परंतु बाहर देने की उदारता न दिखायें यह भी अनुचित हैं ।। तदुपरांत, कहीं कहीं कुछ जैनों में ऐसी बात भी चलती है नीचे के खाते की रकम उपर के खाते में ली जा सकती है, अर्थात् ज्ञानद्रव्य की रकम देवद्रव्य में ली जा सकती है । लेकिन यह बात उचित नहीं है । पुत्री का धन पिता कभी नहीं लेगा । हाँ, कभी तकलीफ में फँसा हुआ पिता पुत्री की रकम ले तो भी वापस दे देगा । उसी प्रकार ज्ञानखाते में से देवद्रव्य में कभी कुछ रकम ली हो तो भी यह ज्ञानखाते में वापस देने की शर्त के साथ लोन के रूप में लेनी चाहिए । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि ज्ञानखाता आदि खातों की रकम देवद्रव्य के खाते में ली जाती ही हो तो फिर ज्ञानखाता अलग खाते के रूप में रहेगा ही नहीं। लेकिन शास्त्रकारों ने ज्ञानखाते को अलग खाते के रूप में ही मान्य किया है । तदुपरांत, देवद्रव्य में देने से लाभ अधिक प्राप्त होता है, अन्य खाते में देने से लाभ कम होता है ऐसा मानना भी अनुचित है। विवेकवान श्रावक को सभी खातों का ध्यान रखना चाहिए, विशेष कर जिस खाते में अधिक आवश्यकता हो, जिस खाते में धन की कमी हो वहाँ पहले देना चाहिए । एक माता अपने बीमार या कमज़ोर बालक का ध्यान अधिक रखती है, उसी प्रकार-अथवा किसान कुँए में से पानी निकालने के बाद सभी आवश्यकतामंद फसल को पहुँचाता है उसी प्रकार । अतः समझदार तथा उदार श्रावकों को पाठशाला, वैयावच्च, साधर्मिक भक्ति आदि छोटे खातों को सहन न करना पड़े इसका ध्यान रखना चाहिए । __ जिस प्रकार कुछेक जैनों की देवद्रव्य के विषय में नियत अच्छी नहीं है, उस प्रकार सरकार भी कानून के बल पर जैनसंघो के पास से देवद्रव्य हड़प ले ऐसी परिस्थिति निर्मित हो रही है । इन सभी बातों पर विचार करते हुए ट्रस्टी लोग, संघ के स्तंभरूप सज्जन, प्रबंधक महानुभाव तथा उदार हृदय से धन खर्च करनेवाले जैन अच्छी तरह से सोचें और देवद्रव्य का शास्त्रीय रीति से प्रबंध करें - उपयोग करते रहें वही जिनभक्ति का श्रेष्ठ उपाय है - श्रेष्ठ मार्ग है। हम सब नाभाकराज चरित्र कथा पढ़कर देवद्रव्य के रक्षणकर्ता बनकर कैवल्यलक्ष्मी के भागी बनें इसी शुभेच्छा के साथ... । इस लेख में जिनाज्ञा विरुद्ध अगर कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडम् । वि.सं. २०६२ प्रात:स्मरणीय पूज्यपाद गुरुदेव फागुन शुक्ला १५ श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य इर्ला ब्रीज, मुंबई पंन्यास भुवनसुंदरविजयजी गणी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ श्री वर्तमान शासनाधिपति श्री महावीर स्वामिने नमः । श्रीमद् विजय प्रेम-भुवनभानु - जयघोष - जगच्चंद्रसूरिवरेभ्यो नमः । श्रीमद् अंचल - गच्छेश मेरुतुंगसूरिवर विरचित श्री नाभाकराज चरित्र ग्रंथ रचयिता का संक्षिप्त परिचय जन्म वि.सं. १४०३ वि.सं. १४२६ सुरिपद ग्रंथरचना वि.सं. १४६४ - - मुनि दीक्षा - वि.सं. १४१० स्वर्गवास वि.सं. १४७३ आपका जन्म मारवाड़ ( राजस्थान) में नाणीगाँव में हुआ था । माता श्रीमती नालदेवी, पिताजी प्राग्वाट वंशीय श्रेष्ठी वयरसिंह वोरा । सुस्वप्न - सूचित - सात वर्ष की आयु में दीक्षा बाद व्याकरण - साहित्य-छंदअलंकार-अष्टांगयोग- मंत्र - आम्नाय - आदि में निपुणता । - यवनराज को अहिंसाधर्म का प्रतिबोध किया । - लोलाडा नगर में राठोड वंशीय फणगर मेघराज सहित १०० मनुष्यों को प्रतिबोध किया था । - सूरिजी को लोलाड़ा नगर में सर्पदंश हुआ था । श्री जीरावल्ली पार्श्वनाथ भगवंत के महामंत्र के द्वारा उन्होंने उस विष का प्रभाव दूर किया था । विष अमृतरूप में परिणत हुआ । उसी नगर के मुख्य द्वार के निकट के तेरह हाथ लंबे अजगर के द्वारा हो रही तकलीफ़ को सूरिजी ने दूर की थी । - - पाटण के निकट यवनराज को प्रतिबोधित कर हिंसा का त्याग करने को समझाया था । - पू. सूरिजी के जीवन के ऐसे अनेक चमत्कारपूर्ण प्रभावों का वर्णन पू. मुनिश्री कलाप्रभसागरजी म. ने किया है । ( इति लेखक परिचय) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री जिनशासनाय नमो नमः श्रीमद् अंचल-गच्छेश मेरुतुंगसूरिवर विरचित श्री नाभाकराज चरित्र अब पू. सूरिदेव २९५ पद्य-श्लोक प्रमाण चरित्र का आरंभ करते हैं । जिनदेव की स्तुति के द्वारा मांगलिक करते हुए कहते जिन प्रभु के प्रभाव से कदम कदम पर सौभाग्य, आरोग्य, सद्भाग्य, उत्तम-महिमा, सन्मति, ख्याति, कांति, प्रतिष्ठा, तेज, शौर्य, श्रेष्ठ संपत्ति, विनय, न्याय, यश की परंपरा, प्रीति आदि सर्व शुभ भाव स्वाभाविक रीति से उदय में आते हैं वे श्री जीरावल्ली पार्श्वनाथ भगवान आपके लिए आनंदरूप बनें ! [देखिए परिशिष्ट (१)] वर्तमान शासनाधिपति श्री महावीरस्वामीजी को सम्यग् रूप से प्रणाम करते हुए ग्रंथकार-कविराज श्री नाभाकराजा का चरित्र (कथा) आरंभ करते हैं । यहाँ मुख्यतः देवद्रव्य की वृद्धि तथा संरक्षण से आत्मिक लाभ तथा उसकी उपेक्षा-भक्षण के परिणाम स्वरूप होनेवाले अपायों की बातें बताई गई हैं । ____ वस्तु के स्वरूप का यथार्थ रीति से निश्चय करने में दक्ष अर्थात् विवेकी जनों को नाभाक नरेन्द्र की कथा का श्रवण अत्यंत लाभप्रद होता है । योग्य रीति से प्रयुक्त की गई जांगुली विद्या अगर सर्प के विष को दूर करती है तो इस कथा का श्रवण करनेवाले का लोभरूप विष भी दूर हो जाता है । इस आख्यान का कर्णामृत प्रेमपूर्वक पान करनेवाला भव्यजीव सदा-सर्वदा संतोष गुण से संतुष्टित बनकर द्रव्य एवं भावस्वरूप सर्व संपत्तियों का भागी बनता है । पूर्व के मुनियों द्वारा वर्णित, पवित्र, पुण्यार्थियों Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रिय ऐसा नाभाक राजा का चरित्र किसके मन को प्रसन्नता अर्पण नहीं करेगा ? अवश्य करेगा । स्थल है जंबूद्वीप का भरतक्षेत्र । समय है श्री पार्श्वनाथ प्रभु तथा श्री नेमिनाथ प्रभु के बीच के आंतरा का अर्थात् मध्यकाल का । यहाँ क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर है । इस नगर में श्रीपति (विष्णु) अर्थात् लक्ष्मीवंत पुरुष, ब्रह्मा (ब्रह्मचर्यव्रतनिष्ठ नगरजन) जिष्णु (इंद्र) अर्थात् विजय प्राप्त करनेवाले पुरुष, श्रीद (कुबेर) अर्थात् दानवीर पुरूष बसते थे । केवल एक ही नागेन्द्र के मस्तक पर स्थित रत्न से सुशोभित भोगावती नामक नागकुमार देवों की नगरी, इस नगरी के, अपने सभी अंगो पर धारण किये हुए रत्नाभरणों से विभूषित, अनेक भोगविलास करनेवाले पुरुषों के द्वारा मानों तिरस्कृत हो कर रसातल में चली गई । सचमुच यह योग्य ही था । यहाँ इन्द्र के समान अत्यंत सुंदर रूपवाला, पाप-संताप से मुक्त नाभाक नामक राजा राज्य करता था । . एक दिन राजा आनंदपूर्वक राजसभा में बैठा था उस समय कोई सेठ वहाँ आया । उसने राजा को उपहार देकर विधिपूर्वक प्रणाम किया । राजा ने सेठ से पूछा - "तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? कहाँ जा रहे हो ?" उस सेठ ने अत्यंत स्वस्थतापूर्वक उत्तर दिया, "राजन् ! सुनिये, मैं धनाढ्य नामक सेठ हूँ । श्री वसंतपुर नगर का निवासी हूँ । तीर्थाधिराज श्री शत्रुजयगिरि की यात्रा के लिए निकला हूँ और उस मार्ग पर जाते हुए यहाँ आया हूँ ।" राजा ने प्रश्न किया, "शत्रुजय क्या है ? उसकी यात्रा का शुभ फल क्या है ?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुवे सेठ ने कहा, "सुनिये राजन् ! महान पुण्य के उदय से प्राप्त हो सके ऐसा, पूर्व के महापुरुषों ने इस तीर्थ के अद्भूत स्वभाव-प्रभाव का जो वर्णन किया है उसे मैं यहाँ कुछ बता रहा हूँ ।" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुजय तीर्थ महिमा यहाँ भरतक्षेत्र में प्राचीन काल में श्री नाभि नाम के कुलकर हो गये । मरुदेवा नामक उनकी अत्यंत प्रिय सुशीला पत्नी थीं । उनकी रत्नकुक्षी से जिनेश्वर श्री ऋषभदेव का जन्म हुआ । उस समय के काल के प्रभाव के कारण असंख्य काल से मानवजाति धर्म तथा कर्म से नितांत अनभिज्ञ थी । श्री ऋषभदेव ने उन्हें कर्म का एवं धर्म का ऐसे दोनों मार्ग बताये । इस क्षेत्र में जन्मे हुए उन्होंने भाई-बहन के विवाह आदि अनीति के पंथ का निवारण करवाया तथा न्याय पंथ की स्थापना की । उस समय के सर्व प्रथम राजा की ऋषभ ने सुनंदा तथा सुमंगला नामक दो कन्याओं के साथ विवाह किया था । उनके साथ सांसारिक सुखों को भोगते हुए उन्हें सौ पुत्र प्राप्त हे थे । अपने सौ पुत्रों में अपने राज्य का विभाजन कर के उन्हें अलग अलग देश के राजा बना कर उन्होंने मुनिदीक्षा ली और घोर तपस्या की । सुंदर साधना के द्वारा वे वीतराग तथा केवलज्ञानी बने । सर्वज्ञ ऐसे उन दयामय प्रभु ने भरतक्षेत्र के भव्यजीवों को क्षमा-नम्रतादिरूप दसविध यतिधर्म का उपदेश दिया। __ ये परमतारक देवाधिदेव निन्यानवे पूर्व बार सौराष्ट्र देश के अलंकार श्री शत्रुजय गिरिराज पर पधारे थे । यहाँ रायण के वृक्ष के नीचे उनके समवसरण मंडित हुए थे । यहां उन्होंने योजनगामिनी सुमधुर वाणी बहाई थी । एकदा प्रभु ने अपने सर्वप्रथम गणधर श्री पुंडरीकस्वामी को संबोधित करते हुए कहा, "हे गणधर ! यह श्री गिरिराज अनादि अनंतकालीन अर्थात् प्रायः शाश्वत है, हाँ, काल के प्रभाव से उसमें संकोच-विकोच अवश्य होगा । वर्तमान में (श्री ऋषभदेवस्वामी के समय में)" उसका विस्तार पचास योजन का, शिखर पर का विस्तार दस योजन का तथा उसकी ऊँचाई आठ योजन की है । काल के प्रभाव से क्रमसर हानि होने से सात हाथ का हो कर पुनः इस प्रकार की वृद्धि को प्राप्त करेगा । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तीर्थाधिराज के तीन शाश्वत नाम हैं : (१) शत्रुजय (२) श्री विमलाद्रि तथा (३) श्री सिद्धक्षेत्र और तुम यहाँ आओगे तथा सिद्धगति को प्राप्त करोगे तब उसका चौथा नाम श्री पुंडरीक होगा। इस शत्रुजय गिरिवर की सुंदर रीति से सेवा करनेवाले के समस्त पाप सर्वथा नष्ट होते हैं । क्या भूमि के प्रभाव से मिट्टी भी रत्नत्व को प्राप्त नहीं करती ? करती ही है । जो भव्य जीव इस गिरिराज के शुभभाव से कभी भी दर्शन करते हैं वे नरक या तिर्यंच गति में तो उत्पन्न होते ही नहीं है, बल्कि मनुष्यगति तथा देवगतिरूप उसका संसार भी सर्वदा बंद हो जाता है अर्थात् वे पंचमी गति-मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।। वीतराग, सर्वज्ञ, त्रिभुवनभानु, परमगुरु श्रीमद् युगादीश के ऐसे अमूल्य वचन सुनकर श्री पुंडरीक गणधर आदि मुनीन्द्र अत्यंत आनंदित हुए । पाँच करोड मुनिवरों के साथ श्री पुंडरीक गणधर महाराज ने इस तीर्थ की सुंदर उपासना की और क्रमेण उन सब ने मोक्ष प्राप्त किया । वे जन्म-जरा-मृत्य-आधि-व्याधि-उपाधि से सर्वदा मुक्त बने । एक लक्ष पूर्व का सुंदर चारित्र पालन कर कुल चौरासी लाख पूर्व के आयुष्य के क्षय बाद प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव अष्टापद गिरिवर पर से मोक्ष गये । प्रभु के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती ने इस श्री शत्रुजय तीर्थ पर अति सुंदर सुवर्ण प्रासाद बनवाया तथा उसमें रत्नों से बनाई हुई पाँचसौ धनुष्य की प्रभुश्री आदिदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की ।। देखिए, जैन कविवर क्या कहते हैं ? : शत्रुजी नदीए नाही, कष्टे सुर सान्निध्यदायी, पणसय चाप गूहा ठाई... विवेकी विमलाचलवसीए, रयणमय पडिमा जे पूजे तेहना पातिकडा ध्रुजे, ते नर सीझे भव त्रीजे... विवेकी० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रभुश्री ऋषभदेव के पवित्र नाम को जो भव्य जीव हृदय में धारण करता है उसे क्लेश का अंश भी पीडादायक नहीं होता । प्रभु द्वारा स्थापित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग पर जो भव्य जीव प्रसन्नतापूर्वक चलता है वह कभी चार गतिरूप या विषय-कषायरूप संसार में फंसता नहीं है । वह मुक्ति प्राप्त करता है । इस जगत में श्री शत्रुजय से बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है, उससे अधिक कोई वंदनीय नहीं है, उससे अधिक कोई पूजनीय नहीं है, उससे बढकर कोई ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य वस्तु नहीं है । अन्य दर्शन के ग्रंथो में भी कहा गया है कि :- इस गिरिवर-मूल में विस्तार पचास योजन, शिखर पर विस्तार दस योजन तथा ऊँचाई आठ योजन प्रमाण है । भागवत में बताया गया है कि :- शत्रुजय तीर्थ के दर्शन करने से रैवताचल (गिरनार पर्वत) की स्पर्शना करने से तथा गजपदकुंड में स्नान करने से भव्यजीव अजन्मा बन जाता है अर्थात् उसका मोक्ष हो जाता है । नागपुराण कहता है :- अडसठ तीर्थों की यात्रा करने से जो लाभ हो अर्थात् फल प्राप्त हो उतना फल श्री शत्रुजय तीर्थेश के दर्शनमात्र से प्राप्त होता है । तीर्थमाला स्तव कहता है :- अतः हे पृथ्वीपति ! हे राजन् ! उत्तम मनुष्यजन्म तथा भरतक्षेत्र की भूमि को पाकर विवेकी आत्माओं को युगादिदेव की महान यात्रा के द्वारा लक्ष्मी का लाभ प्राप्त करना चाहिए । ___ इस प्रकार धनाढ्य नामक उस शेठ ने नाभाक राजा के समक्ष श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज का वर्णन किया । धर्मप्रिय राजा ने तीर्थ का ऐसा अद्भूत माहात्म्य सुना तो उसका मनमयूर नाच उठा। उसने सेठ को औचित्यपूर्वक बिदा देकर शत्रुजय तीर्थ की यात्रा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ करने का निश्चय किया । शुभ कार्य में विलंब क्यों ? [देखिए परिशिष्ट (२)] राजा ने यात्रा के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाया । प्रयाण के दिन ही राजा के सिर में भयंकर वेदना शुरु हुई । मुहूर्त चूक गया। इस कारण से राजा को अत्यंत पश्चात्ताप हुआ । राजा ने दूसरा मुहूर्त प्राप्त किया । उस दिन भी उसके ज्येष्ठ पुत्र को आकस्मिक व्यथा उत्पन्न हुई । यह मुहूर्त भी न साधा जा सका । इससे राजा को दुःख हुआ । उसने तीसरा मुहूर्त प्राप्त किया । उसी दिन राजा की पट्टरानी को महाकष्ट उत्पन्न हुआ । उसी प्रकार चौथा मुहूर्त भी सेना के उपद्रव की शंका के कारण छूट गया । 'मेरी आत्मा अति पापी है' इस प्रकार अपनी आत्मा की निंदा करते हुए राजा ने पाँचवा मुहूर्त निकलवाया किंतु वह भी चूक गया । शुभ काम में सौ विघ्न आते हैं यह बात राजा के लिए सत्य सिद्ध हुई । "बारबार ऐसा क्यों होता है ?" ऐसी चिंतायुक्त राजा इसका कारण जानना चाहता था । राजा के सदभाग्य से नगर के उद्यान में आचार्य श्री युगंधरसूरिजी महाराज पधारे । वनपाल ने राजा को शुभ समाचार दिये । राजा पहुँच गया उद्यान में । गुरु मनःपर्यव ज्ञान तक के चार ज्ञान के स्वामी हैं यह जानकर उसके आनंद में और भी वृद्धि हुई । उसने गुरु महाराज को भाव-भक्ति एवं श्रद्धा सहित नमस्कार किये और सारी बात बताई । स्वयं को शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा में विघ्नबाधा क्यों हो रही है उस विषय में पूछा । गुरु ने मनः पर्यवज्ञान का उपयोग रखा । फिर उन्होंने महाविदेह क्षेत्र में विचरण कर रहे अरिहंत देव को मानसिक नमस्कार किये और मन से ही प्रभु को इस विषय में प्रश्न किया । प्रभु के उत्तर को मन से ही अच्छी तरह से समझकर आचार्यश्री ने राजा को प्रश्न का उत्तर दिया । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० देवद्रव्य रक्षण - भक्षण के विषय में समुद्र और सिंह नामक दो भाईयों की कथा :- अतीत चौबीसी में आज से करीब उन्नीस कोटाकोटी सागरोपम काल से पहले जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में संप्रतिस्वामी नामक अरिहंत के समय में समुद्रतट पर तामलिप्ति नामक नगरी थी । वहाँ दो सगे भाई रहते थे । बड़ा भाई समुद्र पापरहित - पुण्यवान और सरल स्वभाव का था । जब कि छोटा भाई सिंह उससे विपरीत स्वभाववाला अर्थात् पापी - पुण्यहीन और कपटी स्वभाव का था । समझें कि एक बेरी के जैसे मीठे फल देनेवाला था तथा दूसरा कांटे की तरह दुःखप्रद था । अपने घर के स्तंभ के लिए किसी समय वे ज़मीन खोद रहे थे उस समय उन्हें भूमि में से २४००० दिनार की निधि प्राप्त हुई । निधि के साथ एक धातु का पत्र भी प्राप्त हुआ जिस पर लिखा था "नाग नामक कौटुंबिक ने यह देवद्रव्य यहाँ गाड़ा है ।" ताम्रपत्र को पढ़कर न्यायप्रिय बड़े भाई समुद्र ने कहा, "शत्रुंजय तीर्थाधिराज पर जाकर हम नाग गोष्टिक के आत्मकल्याण के हेतु इसका उपयोग करेंगे ।" छोटे भाई ने तथा उसकी पत्नी ने यह बात सुनी । स्त्री ने अपने पति सिंह के कान भरे तो उसकी दशा । उसने बड़े भाई से कह वायु से प्रेरित अग्नि के समान हो गई दिया, "आपको ऐसे बड़े न्याय - नीति की पूंछ बनना किसने सिखाया ? आपको पता नहीं है क्या कि मेरी पुत्री विवाह के योग्य हो गई है ? धन के अभाव में उसका विवाह अब तक संभव नहीं हुआ है ! अब जब धन अपने आप हमें प्राप्त हुआ है तब ऐसे नखरे नहीं करने चाहिए, समझे ?" समुद्र सोचता है, "मेरा यह भाई स्वभाव से ही दुष्ट है, और फिर स्त्री की प्रेरणा हुई । किसी ने सच ही कहा है कि, अच्छे वंश में जन्मा हुआ मनुष्य भी स्त्री से प्रेरणा मिलने पर बुरे कार्य करता है । मथनी स्नेहयुक्त दहीं को मथ डालती है ।" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ मेरा यह सहोदर देवद्रव्य के भक्षण से भयंकर दुर्गति में जायेगा, इसलिए मुझे उसे सुंदर मधुर वाणी के द्वारा समझाना चाहिए । ऐसा सोचकर वह बोला, "भाई ! नरक में ले जानेवाले इस घोर पाप से तू डरता क्यों नहीं है ? जिनेश्वर देव की भक्ति के हेतु रखे गये द्रव्य का उपभोग तू क्यों करना चाहता है ?" देवद्रव्य से जिस सुख की इच्छा की जाती है, परस्त्री के साथ भोगोपभोग के सुख की जो अभिलाषा की जाती है उस उपभोग का सुख निश्चित रूप से अनंत अनंत दुःखों का कारण बनता है । [परिशिष्ट (३) देखें] शास्त्रकार भगवंत बताते हैं कि : चैत्य के द्रव्य के विनाश से, मुनि की हत्या से, प्रवचन की हीलना से, संयति के ब्रह्मचर्यव्रत के खंडन से बोधिलाभ अर्थात् जैनधर्म की प्राप्तिस्वरूप वृक्ष के मूल को अग्नि से जला देने जैसा होता है, अर्थात् भविष्य में दूसरे भवों में जैनधर्म की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ बन जाती है । दैखिये जैन कविरत्न क्या गाते हैं ? "परदारा सेवी प्राणी नरक मां जाये, दुर्लभ बोधि होये प्राये रे, देवरिया मुनिवर ध्यान मां रहेजो ।" "औरों की नौकरी करनी अच्छी है, दूसरों का दासत्व करना अच्छा है, अरे ! घर घर जाकर भिक्षा माँगना भी अच्छा है, परंतु दीर्घकालीन भयंकर दुःख देनेवाला देवद्रव्य का भक्षण तो कभी नहीं करना चाहिए ।" भाई समुद्र का ऐसा सुंदर उपदेश सुनकर भी छोटा भाई सिंह मौन ही रहा, वह वहाँ से उठकर चला गया । फिर से इस दुर्बुद्धि सिंहरूपी खिलौने को दुर्मति पत्नी ने एकांत में चाबी भरी, "आप तो ऐसे भोले के भोले ही रहे ! इस Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार क्यों ठग लिये जाते हो ? देवद्रव्य की ऐसी बातें सत्य थोड़े ही होती हैं ? इस सब बातों को तो कल्पित ही समझना चाहिए । ऐसी बातों से कौन धोखे में आ सकता है ? छोड़िये इन सब बातों को ! आप किसी भी प्रकार बड़े भाई के पास से हमारी संपत्ति का आधा हिस्सा प्राप्त कर लीजिए । निधान भी आधा प्राप्त कर लीजिए । ऐसे व्यवहार ज्ञानविहीन बड़े भाई के साथ रहा ही कैसे जा सकता हैं ?" सिंह की दुर्बुद्धि में वृद्धि हुई । वह तीन दिन दूराग्रह से भूखा रहा । इसने स्वजनों को भी बड़े भाई से अलग होने की बात बताई । उनका साथ लेकर संपत्ति तथा निधान का आधा हिस्सा उसने प्राप्त कर लिया । भाईयों की संपत्ति का बँटवारा हो गया । इच्छानुसार द्रव्य की प्राप्ति होने पर छोटा भाई सिंह तत्काल तो अत्यंत प्रसन्न हो गया । इसके बाद न्यायप्रिय समुद्र ने शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा की तैयारी की । नाग कौटुंबिक के आत्मिक लाभ के हेतु अर्ध निधान तीर्थ पर खर्च करने के लिए वह लालायित था । जैसे ही वह यात्रा के लिए निकला कि उसके छोटे भाई सिंह की दुर्बुद्धि ने एक और दाव खेला । राजा के पास पहुँचकर वह बोला, "राजन् ! मेरे भाई को इस प्रकार खोदते हुए भूमि में से निधान प्राप्त हुआ है । यात्रा के बहाने गुनाहित मानसवाला वह निधान को लेकर नगर से बाहर जा रहा है, इसमें मुझे तनिक भी आप दोषी न समझें ।" तत्काल राजा ने समुद्र को अपने समक्ष बुलवाया । उसने संपूर्ण सत्य हकीकत बताई और देवद्रव्य तथा तद्विषयक लिखित ताम्रपत्र भी राजा को बताये । राजा को समुद्र का यथास्थित वक्तव्य स्पष्ट दिखाई दिया । सुंदर न्यायधर्म के ज्ञाता राजा ने समुद्र का सत्कार कर के यात्रा के लिए उसे अनुमति दी । इससे उसका उत्साह दुगुना हो गया । दूसरा मुहूर्त निकलवा कर वह सपरिवार शीघ्र ही यात्रा के लिए रवाना हुआ । मानों वह स्मरण कर रहा था - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ "एकेकुं डगलुं भरे, शत्रुजय समुं जेह, ऋषभ कहे भव क्रोडना कर्म खपावे तेह ।" शत्रुजय तीर्थ अब केवल चार योजन दूर था । कांचनपुर नगर में सरस्वती नदी के तट पर भोजन करने के बाद समुद्र का काफ़िला आराम कर रहा था । उस समय एक आश्चर्यजनक घटना हुई । वहाँ का राजा अपुत्र मर गया था, इस वजह से दूसरा राजा खोजने हेतु राज्य के मंत्रियों द्वारा अधिवासित पंचदिव्य करवाये गये थे । पाँचों ने आकर समुद्र को आनंदपूर्वक राज्य प्रदान किया । अब वह समुद्र में से समुद्रपाल भूपाल बना । गज पर स्थित, मस्तक पर श्वेत छत्रवाले, जिसकी दोनों और चामर ढोये जा रहे हैं ऐसे, नगरजनों से अनुसरित, कवीश्वरों के द्वारा जिसकी बिरुदावलियाँ गाई जा रहीं हैं ऐसे समुद्रपाल राजा शोभायमान बना था । राज्य के वाजिंत्रों की ध्वनि के द्वारा ब्रह्मांड का मंडप मानो स्वरमयसंगीत से परिपूरित हो रहा है । ऐसे समय में, जहाँ वंदनवार हवा में लहरा रहे हैं ऐसे, ऊँची पताकाओंवाले, सुंदर दृश्य एवं नाटक जहाँ मंचित किये जा रहे हैं ऐसे, रंगीन पानी से सिंचित भूमितल पर सुंदर रंगोलीवाले, विचित्र मंडपों से शोभित दुकानों की पंक्तिवाले नगर में जयघोष सहित उत्सवपूर्वक राजा ने प्रवेश किया । राज्य का कार्य पूर्ण कर अपने परिवार एवं सैन्य के साथ बड़े आडंबरपूर्वक राजा शत्रुजय पर्वत पर चढ़ा । शास्त्र में बताये गये ठाठपूर्ण स्नात्र आदि भेदों के साथ उसने भाव-भक्ति एवं श्रद्धा सहित विधिपूर्वक श्री आदीश्वर प्रभु की भव्य पूजा की । तीर्थ पर महापूजा-ध्वजारोपण आदि कार्यों में उसने इतना अधिक दान दिया कि उसे देखकर दानेश्वरी मेघ भी लज्जा से श्याम हो गया । उसने जिनेन्द्र भक्तिस्वरूप अष्टाह्निक महोत्सव किया तथा नागकौटुंबिक के नामपूर्वक जगत्-पति श्री आदिनाथ की पूजा-आभोग आदि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार्यों के द्वारा देवद्रव्य का वह आधा निधान सुंदर रीति से खर्च कर दिया । इसका नाम है न्याय-नीतिमत्ता । अब सिद्धक्षेत्रादि से ऊतरकर जब राजा समुद्रपाल नगर में प्रवेश कर रहा था तब 'यह वणिक और राजा बना ?' ऐसी असहिष्णुता के कारण अन्य दुष्ट राजाओं ने उसे घेर लिया । दोनों सैन्यों का आपस में युद्ध आरंभ हुआ । अपनी सेना पराजित हो गई ऐसा सोचकर श्री समुद्रपाल राजा 'अब क्या किया जाये ?' ऐसे असमंजस में था उसी समय दृढ़ बंधनों में बद्ध, अंजलि जोड़े हुए, 'हमें बचाइये-हमें बचाइये' ऐसी विनंति करते हुए, अपने चरणों में नत उन विद्रोही राजाओं को उसके सेवकों ने वहाँ खड़ा किया । उन्हें बंधनमुक्त किया गया । आश्चर्यपूर्वक राजा समुद्रपाल ने 'यह क्या हुआ ?' ऐसा प्रश्न उन राजाओं से ही किया तो उन्होंने कहा, "हम और तो कुछ नहीं जानते हैं, परंतु दुर्बुद्धि से संग्राम में लड़ते हुए हम स्वयं ही बंध गये थे और आपकी कृपा से ही अब बंधनमुक्त हुए हैं इसमें कोई शक नहीं है । अतः आप हमें जीवनपर्यंत आपके सेवकों के रूप में स्वीकार करें ।" रक्षित धर्म रक्षा करता ही है यह बात सत्य सिद्ध हुई । सेवक बने हुए उन राजाओं से परिवरित राजा समुद्रपाल ने आडंबरपूर्वक अपनी नगरी में प्रवेश किया । राज्यसभा में अपने कार्याधिकारियों को सर्व विगत बताकर समुद्रपाल राजा ने उन सेवक राजाओं को सत्कारपूर्वक जाने की अनुमति दी । सज्जनों का क्रोध प्रणाम तक ही टिकता है । । तत्पश्चात् राजमंदिर में जाकर उसने जिनदेवों की पूजा की । इसके बाद उसने अपने सन्मुख एक व्यंतरदेव को खड़ा हुआ देखा। राजा ने उससे पूछा, "तू कौन है ?" तब वह व्यंतरदेव बोला, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "राजन् ! पूर्व भव में मैं तामलिप्ति नगर का निवासी नाग नामक कौटुंबिक था । मेरे पूर्वजों ने सुंदर जिनमंदिर बनवाया था । उसका वहिवट मैं किया करता था, परंतु दुर्बुद्धि ऐसा मैं देवद्रव्य से ही मेरे परिवार का पालन करता था । इसके परिणाम स्वरूप मेरा समस्त परिवार नष्ट हो गया ।" एक बार एक नैमित्तिक के पास से सुना कि देवद्रव्य के उपभोग से कुटुंब का क्षय होता है । यह सुनकर मैं डर गया । देवद्रव्य की चोरी का यह भयंकर दुष्ट कर्म मैंने तत्काल छोड़ दिया । उस समय मेरे पास देव संबंधी चौबीस हजार दीनार का जो द्रव्य था उसे मैंने 'यह देवद्रव्य है' ऐसे लेखवाले धातुपत्र सहित भूमि में गाड़ दिया । इसके पश्चात् यथोचित कार्य के द्वारा मैं मेरा जीवन चलाता था । अंत में जब मैं व्याधिग्रस्त हुआ तब एक रात मैंने पडोसिन वृद्धा के मुख से कोमल स्वर से बोला जा रहा शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य सुना । उसके श्रवण में जब मैं एकाग्र था तभी मेरा जीवन पूर्ण हुआ । मृत्यु के बाद श्री शत्रुजय के ध्यान के कारण मैं यहाँ शत्रुजय गिरिराज पर व्यंतर देव बना हूँ । वहाँ देवपूजा के समय आपने मेरा नाम लिया इसलिए और मुझे मेरा पूर्व भव का वृत्तांत याद आया इसलिए आनंदित होकर मैंने सोचा, "राजन् ! आपने बहुत अच्छा किया कि देवद्रव्य का देवपूजन में खर्च किया । इसलिए 'आप जैसे सत्पुरुष के लिए मैं कुछ करूँ' ऐसा सोचकर मैं यहाँ आया हूँ । आपका राज्य हड़प लेने की दुष्ट इच्छावाले उन दुष्ट राजाओं को मैंने ही बंधन में डाला था और उस प्रकार आपके लिए सहायरूप बना था, परंतु स्मरण रहे कि मेरी शक्ति अल्प है और उसी वजह से यहाँ से दूसरे स्थान पर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जाकर रहने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ । अब मैं जहाँ से आया हूँ वहीं मेरे स्थान पर जाऊँगा, परंतु आप जब यात्रा करें तब महान शत्रुंजय तीर्थाधिराज की दो यात्रा का फल प्रति वर्ष मुझे दें ऐसा मैं आपके पास माँगता हूँ ।" राजा ने आनंदपूर्वक इस वचन का स्वीकार किया । सुकृत का पुण्य-प्रदाता प्रश्न :- क्या इस प्रकार दूसरों को सुकृत का दान दिया जा सकता है ? इससे क्या लाभ ? उत्तर :- इसका उत्तर यहाँ (श्लोक ९५ से १००) बहुत सुंदर दिया गया है । स्मरण रहे कि जैन शासन स्वीकार करता है. कि करण-करावण- अनुमोदन अर्थात् करना, कराना तथा अनुमोदना करना इन तीनों का फल समानरूप से मिलता है । जिस वस्तु का दान किया जाता है वह वस्तु दाता को हज़ार गुना प्राप्त होती है । सुकृत का दान किया जाय तो पुण्य की प्राप्ति होती है, पाप का दान किया जाय तो स्वयं को पाप की प्राप्ति होती है । ( श्लोक ९५ ) धनिक व्यक्ति अगर अपना धन अन्य को देता है तो उसका धन कम होता है परंतु अगर सुकृतरूपी धन अन्य को दिया जाय तो उस दाता का वह धन अधिक वृद्धि प्राप्त करता है । ( सुकृतदान धर्म का दान है । श्री जिनवचन उसकी बहुत प्रशंसा करता है । ) अन्य व्यक्ति को मृत्यु आदि के समय अथवा अन्य किसी प्रसंग पर जो सुकृत दान के रूप में (पुत्र आदि द्वारा ) सुनाया जाता है उस सुकृत का लाभ अर्थात् फल मरनेवाले -सुननेवाले व्यक्ति को अपनी श्रद्धा के अनुमान से उसी समय प्राप्त होता है । अब अगर यह सुकृत सुनानेवाला (पुत्र आदि) तदनुसार सुकृत कर देता है तो वह भी अपने ऋण - कर्ज़ में से मुक्त होता है और पुण्यवान बनता Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ है अन्यथा उसका कर्ज़ बना रहता है तो उसे पुण्यप्राप्ति की बात तो संभव ही कहाँ ? ( वह इस प्रकार पापी बनता है ।) अब अगर मरनेवाले को अंत समय पर (पुत्रादि द्वारा ) सुकृत सुनाया न जाय, परंतु वह जिस गति में गया हो, उस गति में अगर वह ज्ञान से जान सके कि उसकी मृत्यु के बाद स्नेही-संबंधियों के द्वारा उसे सुकृत का दान दिया गया है और उसकी अगर वह श्रद्धा - अनुमोदना करें तो भी उसे सुकृत का लाभ प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त मरनेवाले स्वजन के नाम से अगर ( पुत्रादि) स्वजन सुकृत करें तो वह सुकृत मरनेवाले व्यक्ति को पहुँचता नहीं है, अलबत् मृत व्यक्ति के पीछे सुकृत करनेवाले स्वजन इस प्रकार व्यवहार के द्वारा मृत व्यक्ति के प्रति अपनी प्रीति - भक्ति प्रदर्शित करते हैं । संक्षेप में मनुष्य के मरने के पूर्व ही स्वजन आदि सुकृत का दान करें यही श्रेयस्कर है । व्यंतरदेव के जाने के बाद पुण्य के फल को साक्षात् जाननेवाला उसका अनुभव करनेवाला राजा उसमें ही अधिक आदरवाला हुआ (अगर बादल के बिना वर्षा संभवित नहीं है, बीज के बिना धान्य संभावित नहीं है तो धर्म के बिना जीव को सुख कैसे संभवित है ? ) जिस प्रकार स्वयं को श्रेय प्राप्त हुआ है उस प्रकार छोटे भाई सिंह के लिए भी श्रेय की कामना करनेवाले समुद्रपाल राजा ने उसे अपने पास बुला लाने के लिए अपने एक आदमी को तामलिप्ति नगर में भेजा । वह वहाँ जाकर वापस आया और बोला, "राजन् ! आपके बंधु सिंह के लिए तामलिप्ति नगर में मैंने बहुत पूछताछ की, किंतु उन्हें वहाँ हम ढूँढ नहीं पाये । वे वहाँ से किसी अन्य स्थान पर चले गये हैं - वहाँ से पलायन कर गये हैं ऐसा जानने को मिला है ।" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ राजा अब न्यायपूर्वक राज्य का पालन करता है, प्रति वर्ष अनेकशः शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा करते हैं और चिरकाल तक सुंदर सुखों का अनुभव करते हैं । ज्येष्ठ पुत्र को राज्य का कार्यभार सम्हालने के लिए सक्षम जानकर उसे राज्यसिंहासन पर बिठाया तथा विरागी चित्तवाले राजा ने लक्ष्मी का अति सुंदर सुकृतों में व्यय कर के आडंबर तथा विधिपूर्वक सद्गुरु के पास जैन साधुदीक्षा अंगीकार की । धर्मशील मनुष्य के मन में सदा यही रटन रहता है कि मानवजीवन का एक ही सार, बिना संयम नहीं उद्धार । राजर्षि समुद्रपाल ने कषाय के उपशमपूर्वक इक्कीस दिन तक अनशन किया, उसे सुंदर रीति से पूर्ण किया । यहाँ शरीर का त्याग कर के वे सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान में अनुत्तरवासी देव बन गये । वहाँ से च्यवित होकर आर्यदेश, शुद्ध कुल आदि प्राप्त कर, सुंदर संयम साधना कर पहुँच गये मुक्तिसुख के साम्राज्य में । (हाँ ! मोक्ष कहें या महानंद, अमृत, सिद्धि, कैवल्य, अपुनर्भव, निर्वाण, मुक्ति, शिव, अपवर्ग या निश्रेयस् कहें - सब एक ही है ।) छोटे भाई सिंह का क्या हुआ ? इस ओर तामलिप्ति नगरी में सिंह ने सुना कि अपने बड़े भाई ने राजा के संमुख देवद्रव्य आदि सभी बातों का सत्य-प्रकाशन कर दिया है तथा राजा को यह सही लगा है इसलिये राजा ने उनका सन्मान कर के शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा के लिए उन्हें बिदा दी है । इजाजत दी है । तब सिंह स्वयं अपने पाप से शंकित हुआ और उसी वजह से सारा धन तथा अपने परिवार को लेकर अविलंब नाव में बैठकर पहुँच गया सिंहल द्वीप में । वहाँ के राजा की कृपा प्राप्त करके हाथीदाँत प्राप्त करने की इच्छा से वह स्वयँ पहुँच गया घोर अरण्य में । उसे वहाँ से तो और कुछ प्राप्त न हुआ परंतु हाथी का वध करनेवालों के द्वारा उसने हाथियों का वध करवाया । अब उसे Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल गये हाथीदाँत के ढेर । अहा ! पाप द्रव्य का भी यह भयंकर सामर्थ्य है कि वह पापोन्मुख बुद्धि को ही जन्म देता है । (जीव अकेला ही कर्मबंधन करता है, उस कर्म का फल भी वह अकेला ही भोगता है, जन्म-मरण भी अकेले के ही होते हैं तथा भवांतर में भी जीव अकेला ही जाता है ऐसी सद्बुद्धि अब उसे कौन दे सकता है ?) सिंह ने हाथीदाँत से चार जहाज भरे तथा अपने परिवार को वहीं बसाकर हाथीदाँत बेचने के हेतु सौराष्ट्र देश की और निकल पड़ा । समुद्र तो उसने निर्विघ्न पार कर लिया परंतु सौराष्ट्रा नदी के किनारे पर सघन स्थान में उसके सभी जहाज़ टूट कर चूर चूर हो गये । अति पापी व्यक्ति का कल्याण कैसे संभव है ? (अति उग्र पुण्य या पाप इस लोक में ही फल देते हैं) हाथीदाँत सारे गये पानी में और स्वयं गया परलोक में - प्रथम नारकी में नारक के रूप में । वहाँ भयंकर वेदना भोगकर वहाँ से बाहर निकलकर वह बना सरीसृप (सर्प) । मरकर गया दूसरी नारकी मैं। वहाँ दुःख भोगकर वह बना दुष्ट पक्षी । वहाँ से मृत्यु के बाद गया तीसरी नारकी में । वहाँ से निकलकर वन में दुष्ट सिंह बना और हिंसामग्न वह गया चौथी नारकी में । वहाँ से निकलकर वह गया दृष्टिविष सर्प के अवतार में । अनेक पाप कर के वह पहुँच गया पाँचवी नारकी में । वहाँ से बाहर निकलकर वह उत्पन्न हुआ चांडाल की स्त्री के रूप में । वहाँ अनेक पाप करके वह पहुँच गया छठी नारकी में । वहाँ से बाहर निकलकर अनिष्ट ऐसे समुद्र में वह बना बड़ा मत्स्य । मृत्यु के बाद वह पहुँच गया सातवीं नारकी में । यहाँ से निकल कर वह बना तंदुलिया मत्स्य और दुःखों के सागर समान सातवीं नारकी में पुनः पहुँच गया । वहाँ से निकलकर पुनः चंडाल स्त्री बनकर फिर छठी नारकी में, इस Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रकार क्रमशः पाँचवी, चौथी, तीसरी, दूसरी और पहली नारकी में एक एक तीर्यंच के दूसरे भव के अंतर से उत्पन्न हुआ । इसके बाद भी दुःख के महासागर के समान घोर संसार में भटका प्रश्न :- इतना भयंकर दुःख उसे किस कार्य के फल स्वरूप भोगना पडा ? उत्तर :- यह सब देवद्रव्य के विनाश का फल समझिये । शिव के एक भक्त सेठ ने देवद्रव्य अन्यायपूर्वक अल्प प्रमाण में ही भोगा था फिर भी उसे सात बार कुत्ते का जन्म लेना पड़ा था । नहीं ! नहीं ! देवद्रव्य का उपभोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी रूप में कभी भी किया जाना ही नहीं चाहिए । अरे ! विष खाकर कभी जीवित रहा जा सकता है ? सज्जन के कर्ज में से मुक्त होने के लिए क्या पठाण से कभी कर्ज लेना चाहिए ? नहीं नहीं । नाभाक राजा :- प्रभु यह सेठ कौन था ? वह किस प्रकार श्वान बना ? देवद्रव्य का भक्षण सेठ को श्वान बनाता है गुरुमहाराज बताते हैं :- (अवांतर कथा ) सुनिये । भरतक्षेत्र में तथा ऐरवत क्षेत्र में प्रत्येक उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल में ६३ शलाका पुरुष होते हैं है :- २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव । इन शलाका पुरुषों में से एक श्री में राज्य करते थे । गरीब प्रजा भी सुंदर रीति से न्याय प्राप्त कर सके उस हेतु से उन दयावान राजाने एक न्यायघंट की व्यवस्था की थी। एक दिन एक श्वान किसी राजमार्ग पर बैठा था तब किसी यह इस प्रकार बलदेव तथा ९ राम पूर्व काल Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ ब्राह्मण पुत्र ने उसके कान पर पत्थर मारा । लहुलुहान होकर वह पहुँचा न्यायालय में और वहीं बैठ गया । राजा ने उसके आने का कारण पूछा तो उसने हकीकत बताई और कहा, "मैं निर्दोष हूँ, मुझे क्यों आहत किया गया ?" राजा ने उसके घातक ब्राह्मणपुत्र को पकड़कर उस श्वान के सन्मुख खड़ा करके कहा, "यह है तेरा घातक, बता उसे क्या दंड दूँ ?" श्वान बोला, "राजन् ! उसे शिव के मठ में पूजारी के रूप में नौकरी दी जाय ।" राजा ने प्रश्न किया, "यह किस प्रकार का दंड है ?" राजा के इस प्रश्न के उत्तर में श्वान पुनः बोला, "हे राजन् ! सात भव पहले मैं शिव के मंदिर में शिवजी की पूजा किया करता था । भूल से भी देवद्रव्य का भोजन मेरे पेट में न जाय इस हेतु से हाथ धोकर ही मैं भोजन करता था । किसी एक समय लोगों ने शिवलिंग पर घी चढ़ाया था । घी गाढ़ा होने की वज़ह से उसे दूर करते समय वह गाढ़ा घी मेरे नाखूनों में पैठ गया । मैंने जब गरम भोजन खाया तब वह घी पीघला और अनजाने ही मेरे पेट में गया । इस दुष्कर्म के कारण ही मुझे सात बार श्वान का अवतार प्राप्त हुआ है । श्वान के रूप में यह मेरा सातवाँ अवतार है । मुझे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ है तथा हे न्यायप्रिय राजन् ! आपके प्रभाव से मुझे मनुष्य की भाषा बोलने का सामर्थ्य भी प्राप्त हुआ है ।" यह सुनकर पापभीरु नाभाक राजा गुरु को प्रणाम करके बोले, " हे पूज्य ! देवद्रव्य के भक्षण से इतना भयंकर नुकसान होता है, इसे सुनकर मेरा हृदय बहुत कांप रहा है ।" आचार्य बोले, "हे राजन् ! देवद्रव्य का दुरुपयोग करनेवालों को उसके कैसे भयंकर परिणाम भोगने पड़ते हैं, यह बात तुम आगे सुनो जिससे तुम्हें अच्छी तरह से इसका ज्ञान हो सके ।" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ देवद्रव्य का भक्षण करनेवाले नागकुटुंबी का सर्वनाश :भोग की आकांक्षावाला नाग कुटुंबी का जीव व्यंतर देव शत्रुंजय पर्वत पर साठ हज़ार वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वहाँ से च्यवित हुआ और कांतिपुरी नगरी में रुद्रदत्त कौटुंबिक के सोम नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । पाँचवे वर्ष में ही उसकी माता की मृत्यु हुई । सोम के घर के निकट ही नास्तिक नाम का एक देवपूजक रहता था । उसके पुत्रों के साथ सोम भी देवमंदिर जाता था, देवद्रव्य खाता था तथा पूजा करते हुए शेष रहे देव के द्रव्यस्वरूप चंदन से अपने शरीर पर विलेपन करता था और फिर गले तक अपने शरीर को वस्त्र से ढंककर घूमता रहता था । कालक्रम से वह युवा हुवा । एक दिन वह देव का धनभंडार चुराकर पलायन हो गया किंतु पाप के फल से कैसे पलायन हो सकता था ? वह पकड़ा गया चोरों के हाथों । चोरों ने उसे लूट लिया और उसे पारसीक देश में बेच दिया वे पारसीक लोग उसके शरीर में से रक्त निकालकर अपने वस्त्रों को रंगते थे । मौका पाकर वह वहाँ से पलायन हो गया । किसी जगह रास्ते पर चलता हुआ वह एक गाँव के निकट पहुँच गया । गाँव में प्रवेश करते समय ही सामने से आ रहे एक मास के उपवासी तपस्वी मुनिवर उसे मिले । महान शगुनवाले इन मुनिवर को पहचानने की क्षमता इस पापी के पास कहाँ थी ? उसने मुनिवर पर तीन बार लकड़ी से वार किया और भूमि पर गिरा दिया । मुनि देह त्याग करके स्वर्ग सिधारे । भाग रहे इस सोम को गाँव के रक्षकों ने पकड़ा । अभयदानदाताशिरोमणि, अनंत करुणानिधान, त्रिभुवनभानु, परमात्मा के उपासक श्रावकों ने दयावश उसे ग्रामरक्षकों से मुक्त करवाया । वह वहाँ से पलायन तो हो गया परंतु क्या पाप के फल से पलायन होना संभव है ? अरण्य में लगे दावानल ने उसे जलाकर भस्मीभूत कर दिया । मरकर वह पहुंच गया सातवीं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ नारकी की घोरातिघोर भयंकर वेदना भोगने के लिए । ऋषिहत्या का पाप चार बहुत बड़े लोकोत्तर पापों में से एक है । वह प्रायः तत्काल दुःखप्रदायक बनता है । वहाँ उसने तैंतीस सागरोपम तक अति तीव्र वेदना सहन की । वहाँ से बाहर निकलकर घोर संसार में परिभ्रमण करके वह बना हल चलानेवाला खेतमज़दूर । उसका नाम था कौशिक | अंबर ग्राम के ग्रामपति के घर रहकर वह सभी किसानों के साथ मज़दूरी करता था । एक दिन खानेपीने की वस्तुएँ लेकर वह मार्ग पर जा रहा था तब उसे मासोपवासी मुनि मिले । मुनि के दर्शन से वह प्रसन्न हुआ और मुनि को अपनी भोजन सामग्री ग्रहण करने के लिए विनंति की । प्रश्न :- वह तो मुनि की हत्या करनेवाला महापापी था तो फिर उसे मुनि की, भोजन सामग्री के द्वारा, भक्ति करने की इच्छा कैसे हुई ? उत्तर :- अपने व्यंतर के भव में उसने समुद्रपाल राजा को सहायता की थी । बाद में धर्मीष्ठ राजा के पास उसने महातीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय गिरिवर की प्रति वर्ष दो यात्राओं का फल माँगा था और राजा ने उसका स्वीकार किया था । अतः उस यात्रा का फल मिलने के कारण उसके पाप कुछ क्षीण हुए थे और उसी कारण से उसे मुनि को ऐसी विनंति करने का भाव हुआ था । अन्य व्यक्ति अगर सुकृत का दान करे तो वह फल दान पानेवाले को भी प्राप्त होता है । [ देखिए पृष्ठ नं. (२६)] साधु महाराज निर्दोष गोचरी पाने के विषय में सावधान थे । उन्होंने उस हल चलानेवाले श्रमिक से कहा, "भाई, अगर मैं यह भोजन ग्रहण करता हूँ तो तुम जिनके लिए यह भोजन लेकर जा रहे हो उन लोगों को भोजन का अंतराय संभव होगा, इसलिए इस भोजन का स्वीकार करना मेरे लिए उचित नहीं है ।" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कौशिक बोला, "तपस्वी मुनिराज ! मैं आज उपवास करके भी आपको मेरे हिस्से की भोजन की यह सामग्री अवश्य दूंगा । कृपा करके आप उसे अवश्य ग्रहण करें ।" मुनिप्रवर ने उसका आग्रह देख लिया - जान लिया । उन्होंने गोचरी का स्वीकार किया । कौशिक ने मुनि के पास उपवास का पच्चक्खाण तथा प्राणियों का वध न करने का नियम लिया । स्वयं को मानों राज्य की प्राप्ति हुई हो उतनी उसे प्रसन्नता हुई । इस प्रकार सुंदर कर्मफल (पुण्य) जिसने प्राप्त किया है ऐसा भद्र परिणामी यह कौशिक मरकर चित्रकुट पर्वत पर चित्रपुरी नगरी का चंद्रादित्य नामक राजा हुआ । शुद्ध दया और पुण्य से प्रभावित, रोगरहित, अपने उत्कृष्ट सौंदर्य से कामदेव को भी पराजित करनेवाला... । चंद्रादित्य राजा की कथा कुछ समय व्यतीत हो जाने के बाद उस चंद्रादित्य राजा का शरीर कुष्ट रोग से ग्रस्त हुआ । शरीर का यह भयंकर रोग प्रजा जान पाये यह उसे पसंद नहीं था और उसी कारण से वह पैरों से लेकर गले तक का अपना शरीर सदा कपड़ों से ढंका हुआ रखता था । अब उसके पापों के उदय का = फल प्राप्ति का समय था, फिर भी वह अधिक पाप कर्मबन्ध स्वरूप शिकार करने के लिए सज्ज हुआ था । अपने आदमियों-सेवकों को लेकर वह पहुँच गया वन्य प्राणियों के निवासस्थान वन में । अत्यंत चपल घोड़े पर बैठकर हिरन आदि निर्दोष प्राणियों की हत्या के भावों में डूबा हुआ वह दौड़ रहा था । उसी समय काउस्सग्ग ध्यान में स्थित मुनिवर उसके दृष्टिपथ में आये । राजा ने मुनिवर से पूछा, 'वे हिरन किस दिशा में गये हैं ?' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम दयावान मुनिवर मौन रहे तो उसने पुनः उनको वही प्रश्न पूछा, परंतु मुनि का मौन यथावत् था । तीसरी बार भी उसी प्रश्न के लिए जब उसे मुनिवर के पास से उत्तर न ही मिला तो उसका क्रोध आसमान पर पहुँच गया । हिरनों की हत्या का भाव अब मुनिवर की हत्या के भाव में परिवर्तित हो गया । परंतु वह भाव सफल कैसे हो सकता था ? ____ मुनि की हत्या के हेतु राजा ने धनुष्य पर बाण चढ़ाया, परंतु पुण्यमूर्ति साधु के आगे उसका कुछ न चला । वह स्वयं स्तंभित हो गया । अभय स्वरूप मुनिवर ने काउस्सग्ग पूर्ण करके मृदु स्वर से कहा, "राजन् ! पूर्व जन्म में किये हुए पापों का फल अभी भुगत ही रहे हो, अभी उससे मुक्त भी नहीं हुए हो और नये पापों को क्यों जन्म दे रहे हो ?" मुनि के वचन में जादु था । राजा के मन में मुनि को प्रणाम करने की भावना जागृत हुई । तो वह स्तंभन से मुक्त हुआ । मुनिवर को प्रणाम करके उसने पूछा, "महात्मन् ! पुराने और नये पापों की क्या बात है ? मुझे यह विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें !" मुनिवर बोले, "सुनो राजन् ! अयोध्या नगरी में केवलज्ञानी मुनि भगवंत ने अति विशाल पर्षदा में देवद्रव्य के विनाश के अधिकार में तुम्हारे पूर्व भव की कथा मुझे बताई थी और मेरे द्वारा तुम्हें सन्मार्ग प्राप्त होगा ऐसा कहा था । और उसी कारण से मैं इस वन में तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिए आया था तथा काउस्सग्ग ध्यान में रहा था ।" "परम कृपावंत मुनिवर ! मुझे मेरे पूर्वभव का वृत्तांत बताने की कृपा करें ।" राजा चंद्रादित्य ने प्रार्थना की अतः मुनिवर ने पूर्वोक्त नाग कौटुंबिक की कथा आरंभ से उसे कह सुनाई । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ "शुद्ध दान तथा दया के शुभ भाव के कारण तुम्हें अति विस्तृत राज्य तथा उत्तम रूप की संपदा प्राप्त हुई थी परंतु देव के चंदन से पूर्व में तुमने जो विलेपन किया था उसके कारण तुम्हारे शरीर में कुष्ट रोग व्याप्त हुआ है ।" अपने पूर्व जन्म के पापों के विषय में जानने पर राजा अत्यंत भयभीत हो गया । मुनि को वंदना करके अत्यंत विनयपूर्वक उसने प्रार्थना की, " हे दयासिंधु मुनिवर ! हे त्रिभुवनभानुप्रिय ! मुझे इस भयंकर पाप से मुक्त कराइये ! मुक्त कराइये !" शास्त्रों के ज्ञाता मुनिवर ने राजा को पंचपरमेष्ठी महामंत्र का जाप करने के लिए कहा । " राजन् ! जिनमंदिर का निर्माण करने से देवद्रव्य के भक्षण के पाप से मुक्ति प्राप्त हो सकती है"- ऐसा प्रायश्चित शास्त्र के ज्ञाता उन मुनिवर ने बताया । चंद्रादित्य राजा के मन में अब सन्मार्ग प्रदाता मुनिवर के प्रति बहुत आदर उत्पन्न हुआ । उसने उन्हें अति आग्रहपूर्वक अपने नगर में रखें । मुनिवर - गुरुवर के उपदेश अनुसार उसने नमस्कार महामंत्र का स्मरण शुरु कर दिया । धर्म का तत्काल फल देखिए ! छः मास में ही राजा की काया पूर्ववत् कंचनसम कांतियुक्त तथा निरोगी बन गई । गज, अश्व, धन आदि की वृद्धि से राज्य विस्तृत बना । चित्रकुट पर्वत के शिखर पर उसने त्रिभुवनभानु, परमतारक परमात्मा का, दैवी पर्वत के समान उच्च शिखरवाले मंदिर के निर्माण का कार्य जय-जय घोषपूर्वक आरंभ किया । एक दिन यह चंद्रादित्य राजा मुनिवर के पास बैठे थे । उस समय एक कुम्हार ने राजा को बताया, "राजन् ! एक आश्चर्य की बात है कि मेरा यह गधा पानी वहन करता हुआ अपनेआप ही पर्वत पर चढ़ जाता है । मुझे उसे किसी प्रकार की प्रेरणा करनी नहीं होती । इसका कारण क्या हो सकता है ?" यह सुनकर राजा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ खुद को भी आश्चर्य हुआ । स्वयं इसका उत्तर न समझ सका तो उसने मुनिवर से पूछा । उसी समय पूर्वोक्त केवलज्ञानी महात्मा वहाँ पधारे । राजा तथा मुनिवर दोनों कुम्हार सहित उन्हें वंदन करने के लिए गये । राजा ने गधे के विषय में पूछा तो केवली भगवंत ने समुद्र तथा सिंह - दो भाइयों की संपूर्ण कथा आरंभ से बताई । वे आगे बोले, "यह गधा उसी समुद्रपाल राजा का छोटा भाई सिंह का जीव है । संसार में घोर-तीव्र वेदना भोगने के पश्चात् वह कुछ अल्प पापकर्मवाला बना होने के कारण छ: बार गधे के रूप में जन्मा था । सातवें भव में वह तीन इन्द्रियोंवाला जीव बनकर पुनः कर्म भोगना शेष होने के कारण पुनः छः बार इसी नगर में गधा बना था । यह उसका पुनः छठी बार का गधे का जन्म है । इस प्रकार गधे के रूप में उसके बारह अवतार हए हैं । सिंह के जन्म में उसने देवसंबंधी द्रव्य में से बारह हज़ार दिनार का विनाश (चौर्य) किया था । उस कर्म को भोगना अभी शेष होने के कारण उसकी ऐसी दशा हुई है । बारह हज़ार दिनार देवद्रव्य का उसने विनाश किया था उस कर्म के परिणाम स्वरूप उसे बारह बार गधे का जन्म मिला है । प्रत्येक जन्म में गधे के अवतार के समय कुंभकार के लिए इस पर्वत पर चढने के अभ्यास के कारण अब वह स्वयं ही पर्वत पर चढ़ता है ।" केवलज्ञानी के मुख से यह बात सुनकर राजा चंद्रादित्य के मन में गधे के प्रति दया जागृत हुई । उसने कुम्हार को गधे की देखभाल सविशेष अच्छी तरह से करने की सूचना दी । कुम्हार भी अब प्रयत्नपूर्वक उसका पालन करने लगा । भद्रिक परिणामी गधे की समय आने पर मृत्यु हुई । भद्रिक परिणाम के कारण उसे मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ । वह मुरस्थल ग्राम में भानु नामक ग्रामीण कुंभकार ही पर्वत पर यह बात र Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बना । एकदा राजा ने उसे अपने राज्य से निष्कासित किया । वहाँ से वह गंगा के आवर्त में पहुँचा । यहाँ उसे आजीविका के उचित साधन प्राप्त न हुए । बारबार आजीविका का लोप वह सहन न कर सका इस कारण से अब वह क्रूर कर्मों के द्वारा प्राप्त धन से अपना निर्वाह करने लगा । किसी एक समय शत्रुंजय तीर्थाधिराज की यात्रा करके अपने गाँव वापस जा रहा एक ब्राह्मण, अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ उस गाँव में आया । भक्त ने दान में दी हुई गाय के साथ अपने परिवार को लेकर दूसरे दिन बड़े सवेरे जब वह गाँव के बाहर जा रहा था तब उस दुष्ट भानु ने गाय - पत्नी - पुत्र सहित उस ब्राह्मण की हत्या कर डाली । वहाँ से भागता फिरता जब वह गंगावर्त्त में आया तब शाम के समय ठंडी की मोसम में काउस्सग्ग ध्यान में स्थित एक मुनि को उसने देखा । " अहो ! ये मुनि कितने समय तक कष्ट सहन करेंगे ?" ऐसा सोचता हुआ विस्मयवश वह चार प्रहर वहीं खड़ा रहा । प्रातः काल में जब मुनिवर ने काउस्सग्ग पूर्ण किया तो उन्हें प्रणाम करके भानु ने पूछा, "मुनिराज ! क्या विशाल राज्य प्राप्त करने की इच्छा से आप तपश्चर्या कर रहे हैं ? कष्ट सहन कर रहे हैं ? " " 'भाई ! हम तो जैन मुनि हैं । राज्य तो नरकगति में ले जाने का कारण है । हम उसकी स्पृहा क्यों करेंगे ? जिनवर के सभी साधुजन मुक्ति अर्थात् मोक्षप्राप्ति हेतु तप करते हैं ।" मुनिवर मृदु वाणी में बोले । "यह मोक्ष क्या है ?" भानु ने प्रश्न किया । तो मुनिराज ने संसार और मोक्ष का स्वरूप स्पष्ट किया । संसार, नरक - तिर्यंचमनुष्य-‍ - देव गति में आत्मा के भ्रमण अर्थात् संसरण स्वरूप है । वह पाँचों इन्द्रियों के विषय की लगन और क्रोध - मान-माया-लोभ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि चार कषाय स्वरूप है । जन्म-जरा-मृत्यु स्वरूप मुख्य क्लेश सहित अन्य हज़ारों क्लेश उत्पन्न होने के लिए यह भूमिरूप है । वह संसार स्वयं दुःखरूप है, दुःख के फलवाला है, दुःख की परंपरावाला है, उपाधिरूप है । यहाँ ऊपर से सुखी दिखनेवाला जीव भी वास्तव में दुःखी होता है । और इससे विपरीत शाश्वतअनंत-स्वाधीन-संपूर्ण आनंद के धामस्वरूप है मोक्ष । यहाँ आधिव्याधि-उपाधि का अंश भी नहीं होता । अनंत ज्ञान-दर्शनचारित्र-वीर्य की लीनता में अनंत अनंतकाल सुख ही सुख होता है । अरे ! सम्यक् समझवाले देव भी स्वर्गसुख का आदर नहीं करते हैं और मोक्ष के उत्तम सुखों की स्पृहा करते हैं । प्रश्न :- ऐसा चिरंतन सुख किसको मिल सकता है ? उत्तर :- ऐसा अनंत सुखमय मोक्ष सत्कार्य करनेवाले को प्राप्त होता है । उन सत्कार्यों में भी वीतराग-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेश्वर देवों ने मुख्यतः सर्वजीव कृपा को ही प्रथम स्थान दिया है - बताया है । कृपा के विषय में मुनिवर ने हिंसा करने से आत्मा की चारों गतियों में होनेवाली दुर्दशा-सर्वनाश तथा अहिंसा से आत्मा को प्राप्त होनेवाली आबादी-शांति-समाधि-प्रसन्नता-आनंद की बातों का विस्तारपूर्वक उपदेश दिया । हिंसा के भयंकर करूण परिणाम सुनकर भानु अपने पापों से डर गया-कांप उठा । साधु महाराज को प्रणाम कर उसने यावज्जीव हिंसानिवृत्ति का उत्तम नियम माँगा, मुनि ने उसे नियम के विषय में समझुति दी और नियम प्रदान किया । तत्पश्चात् वह मुनि को अपने घर ले गया । शुद्ध अन्न से गुरु महाराज की भक्ति का लाभ लिया । इस प्रकार उसने भोग के फलवाला शुभ कर्म उपार्जित किया । हमेशा दयावान-कृपावान बनकर वह पूजनीय बना । लोगों के पास से मिलनेवाले धन से जीवनयापन करने लगा । मरकर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० उस दान तथा पुण्य के प्रभाव से हे राजन् ! तुम अपने रूप के कारण कामदेव को भी पराजित करनेवाले, सुंदर अंगोपांगवाले नाभाक नामक राजा बने । राजा चंद्रादित्य ने भी सुंदर जिनालय का निर्माण करवाकर अपने पापों को प्रायश्चित से शुद्ध किया । इस प्रकार पवित्र बनकर वह प्रथम सौधर्म देवलोक में देव बना । राजन् ! उसी भव में वहीं पर तुमने मूर्तिमान पुण्यस्वरूप जिनमंदिर को गिराकर उस स्थान पर नगर के आसपास किला बनवाया था, तदुपरांत पूर्व में तुमने ब्राह्मण - स्त्री - बालक- गाय तथा तीर्थ की हत्या की थी । ये पाँच हत्याएँ तुम्हारे सर्व पुण्यों में अंतराय का कारण है । उसमें भी यात्रा में तुम्हें जो विघ्न आये वे तो तीर्थ के नाश का ही फल है । अतः उन विघ्नों को दूर करने हेतु जो प्रायश्चित है उसे तुम सुनो । श्री ऋषभदेव भगवान के शासन में प्रथम सर्वोत्कृष्ट तप बारह मास का, वर्तमान में श्री अजितनाथ से श्री पार्श्वनाथ भगवान के शासन में आठ मास का तथा श्री महावीर भगवान के शासन में छ: मास का बताया गया है । सर्वोत्कृष्ट तप प्रायश्चित भी उसी प्रकार उस शासन - विशेष में जानना । विशेष में तीर्थनाश के पाप की शुद्धि तीर्थनिर्माण के द्वारा होती है । विशिष्ट अभिग्रहवाले जो भव्य जीवो शत्रुंजय आदि तीर्थों पर उपरोक्त रीति से प्रायश्चित तप का आचरण करते हैं वे समस्त पापों से सदा के लिए सर्वथा मुक्त होते हैं । अंतराय कर्मों का क्षय किस प्रकार ? :- श्री युगंधर सुरिवर के मुख से यह अमृतमय उपदेश सुनकर नाभाक राजा हर्षित हुआ । उसने अपने नगर के उस किले में प्रवेश न करने का नियम ग्रहण किया, जिसे जिनालय को गिराकर बनाया गया था । जिस स्थान पर उसे मुनिवर का समागम प्राप्त हुआ था उसी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान पर उसने नगर की समस्त प्रजा को बुलाकर नया नगर बसाया । वहाँ गुरुवर को बिराजमान कराके उसने गुरुदेव के पास निम्नानुसार नियम ग्रहण किये । ___-जब तक श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा करके वापस न आऊँ तब तक मैं भूमि-संथारा करूँगा अर्थात् शयन भूमि पर ही करूँगा । -मैंने तीर्थ हत्या (तीर्थनाश) ब्रह्महत्या तथा बालहत्या की है । उन हत्याओं के पाप की शुद्धि हेतु मैं क्रमानुसार अब्रह्म, दहीभक्षण तथा दूधभक्षण का त्याग करता हूँ । स्त्रीहत्या तथा गौहत्या के पाप की मुक्ति हेतु मैं आज से आजीवन परस्त्रीगमन तथा मद्य-माँस का त्याग करता हूँ ।। तत्पश्चात् राजा ने नये जिनमंदिर के निर्माण हेतु कारीगरों आदि की नियुक्ति की । गुरु के सदुपदेश से उसने एकांतर उपवास से आठ मास के उपवास का तप आरंभ किया । आठ मास में जिनमंदिर का निर्माणकार्य पूर्ण हुआ । वहाँ उसने महोत्सवपूर्वक कांचमनयी श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा की स्थापना की । शेष तप उसने तीन काल श्री जिनेश्वरदेव की पूजापूर्वक पूर्ण किया । इस प्रकार तीर्थनाश के पाप से मुक्त होकर राजाने शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में श्री संघ, गुरुओं तथा अपनी सेना के साथ भरत चक्रवर्ती की तरह आडंबरपूर्वक श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा हेतु प्रयाण किया । प्रथम प्रयाण के समय मार्ग में चार बिल्लियाँ रास्ता काटकर निकल गई । राजा ने गुरुजनों को इसका फल पूछा। गुरुजनों ने बताया, "बालादि हत्याओं का पाप तुम्हारा पुण्यकार्य में अंतराय करने हेतु अपना प्रभाव दिखा रहा है, परंतु कृतनिश्चयी होने के कारण तुम्हारा कार्य अवश्य पूर्ण होगा ।" गुरुओं की बात को मन में अवधारण कर, भगवान आदिनाथ के स्मरण में एकचित्त Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ होकर निरंतर यात्रा करता हुआ राजा श्री शत्रुंजय तीर्थ के निकट आ पहुँचा । श्री शत्रुंजय चक्षुओं से दृश्यमान होने पर राजा ने सेना को एक स्थान पर रोक दिया । स्वयं स्नानादि से पवित्र होकर सिंहासन पर श्री अरिहंतदेव की प्रतिमाजी को स्थापित कर सकल श्रीसंघ के साथ उसने आडंबरपूर्वक स्नात्र महोत्सव किया तथा पूजा के तमाम भेद अर्थात् सभी प्रकारों से प्रभु की पूजा की । तत्पश्चात् रत्नजडीत थाल में सुवर्ण एवं चांदी के यव से प्रभुजी समक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त, मत्स्ययुगल, दर्पण, श्रीवत्स आदि अष्टमंगल आलेखित करके आनंद एवं प्रसन्नतापूर्वक श्री जिनेश्वरदेव की १०८ सार्थक शब्दयुक्त श्लोकों से भाव-भक्ति - श्रद्धा सहित स्तुति की । नमुत्थुणं अर्थात् शक्रस्तव से श्री सिद्धाचल तीर्थाधिराज को वंदना की, सद्गुरुओं को नमन करके स्वर्ण-मणि - रत्न- मोतियों से उनका सन्मान किया । याचकों को यथेच्छ दान देकर संतुष्ट किया तो समस्त जनता को मिष्टान्न भोजन आदि से संतुष्टि प्रदान की विशेषतः साधर्मिकों को । मार्ग पर चलते हुए राजा एवं अन्य लोग - सारा समुदाय पहुँचे श्री शत्रुंजय गिरिराज की तराई तक । गुरुओं के पीछे श्री तीर्थाधिराज पर चढ़ रहा राजा मानों मुक्तिमहल के हेतु प्रस्थान कर रहा हो ऐसा शोभायमान हो रहा था । प्रथम बार जिनवर प्रासाद के दर्शन के समय अपूर्व महोत्सवपूर्वक याचकों को यथेच्छ दान दे रहा राजा मानों कल्पवृक्ष के समान दानेश्वरी बना था । उसने आठ दिन तक संघपति श्री जिनेश्वर का भक्ति महोत्सव मनाया और जिनेश्वर स्नात्र, पूजा, ध्वजारोपण, अमारी - प्रवर्तन, साधर्मिक - भक्ति आदि श्री संघपति (श्री संघ जिसका पति है) के सर्व धर्म अत्यंत सुंदर रीति से पूर्ण किये । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ तीर्थ की सेवा करनेकी भावनावाले उस राजा ने गुरुओं को इस के लिए विधि के विषय में पूछा और गुरुओं के सदुपदेश के अनुसार धर्मध्यान में तल्लीन बना हुआ वह राजा त्रिकाल श्री जिनेश्वर की पूजा, पवित्र शरीरवाला बनकर अहोरात्रि नमस्कार महामंत्र का ध्यान करता हुआ, प्रत्येक पारणे के प्रसंग पर साधुओं एवं साधर्मिकों का यथोचित भोजन - जल आदि से सत्कार करता रहा । इस प्रकार उसने दस चोविहार छट्ठ तपपूर्वक एक मास पूर्ण किया । छट्ठपूर्वक के तप के तीसवें दिन ब्राह्ममुहूर्त (रात्रि के अंतिम प्रहर की अर्थात् सूर्योदय के पूर्व की अंतिम ९६ मिनिट के समय ) में उसने नेवले के कद की चार कबरी बिल्लियाँ अपने सन्मुख देखीं थीं । पहले जो देखी थीं उससे अधिक दुबली-पतली । तप के प्रभाव से मेरे ब्रह्महत्या आदि का पाप क्षीण हो रहे हैं ऐसा अनुमान करके अब उसने अट्ठम के पारणे पर अट्ठम का तप आरंभ किया । एक मास के तप के बाद उसने धूसर वर्णवाली कोल अर्थात् बड़े चूहे के कद की चार बिल्लियाँ देखीं, जो पहले देखी हुई बिल्लियों से कहीं छोटी थीं । पूर्व की ही तरह पाप का क्षय हो रहा है ऐसा अनुमान करके अब उसने चार उपवास के पारणे पर चार उपवास इस प्रकार एक मास का तप किया । (छः बार चार उपवास और छ: पारणा) इस तप के अंत में उसे बिल्लियाँ चूहे के समान छोटे कद की तथा श्वेत वर्ण की दिखाई दीं । तपश्चर्या का फल उसे प्रत्यक्ष दिखने लगा तो वह अधिक प्रसन्न हुआ और पाँच उपवास के पारणे पांच उपवास - इस प्रकार पच्चीस उपवास और पाँच पारणापूर्वक एक महीने का तप किया । तप के उनतीसवें दिन अर्ध निद्रावस्था में तथा नवकार महामंत्र का स्मरण करते हुए उसे उस प्रकार स्वप्नदर्शन हुआ 'किसी स्फटिक के पर्वत के प्रथम सोपान पर मैं बैठा था, किसी अत्यंत - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्ध दुर्बल पुरुष ने मुझे वहाँ से नीचे की और गिराया, परंतु मैं तो पहुँच गया दूसरे सोपान पर, फिर तीसरे सोपान पर... इस प्रकार अनुक्रम से मैं पर्वत के शिखर पर चढ़कर मोतियों के ढेर पर पहुँच गया ।' उसने सद्गुरुओं को ये सारी बातें बताई तथा उसका फल पूछा । गुरुओं ने बताया, "हे भव्यात्मन् ! सुनो ! स्फटिक का पर्वत मैंने श्री जिनेश्वर द्वारा उपदेशित धर्म, प्रथम सोपान है मनुष्य अवतार । यहाँ तुम्हारे पूर्वकृत कुछ शेष अंतराय कर्म तुम्हें नीचे पछाड़ते हैं फिर भी तुम धर्म-प्रयत्न एवं सत्य के सहारे गुणप्राप्ति में प्रगति करोगे तथा यहाँ से आयुष्य पूर्ण करके अच्युत देवलोक में देव बनोगे । यह है दूसरा सोपान तथा केवल ज्ञान है तीसरा सोपान अर्थात् वहाँ से च्यवित होकर अमूल्य मानव भव प्राप्त कर तुम सुंदर चारित्रधर्म के सोपान चढ़कर मुक्तिमहल में पहुँच जाओगे।" "परंतु मैं छद्मस्थ हूँ इस कारण से तुम्हारे पूर्वकृत कर्मों को जान सकता नहीं हूँ । इसलिए महाविदेह में विचरण कर रहे श्री सीमंधरस्वामी भगवंत से तुम पूछो ।" गुरुदेव बोले । राजा ने पूछा, "गुरुदेव ! श्री सीमंधर स्वामी का उत्तर मुझे किस प्रकार प्राप्त हो सकता ह र तप तथा पुण्य वाक्य गुरुने राजा के ज्ञाता "राजन् ! तुम्हारे तप तथा पुण्य के प्रभाव से तुम्हें शीघ्र ही यह उत्तर भी प्राप्त हो जायेगा ।" यह वाक्य गुरुने राजा के विशेष लाभ के हेतु ही कहा था, अन्यथा मनःपर्यव ज्ञानी, शास्त्रों के ज्ञाता वे केवलज्ञानी को प्रश्न पूछकर स्वयं ही सब कुछ जानने को समर्थ थे । अपने अंतराय कर्म अभी शेष हैं और उसके लिए तप ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है ऐसा समझकर नाभाक राजा ने पारणे के दिन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी उपवास ही किया । थोड़ी निद्रा प्राप्त कर रात्रि पूर्ण होने पर जब वह जागृत हुआ तो उसने स्वयं को महा अरण्य में पड़ा हुआ पाया । यह कैसा अंतराय आ पड़ा ? ऐसा विचार मन में उठने के बाद उसने पुनः स्वस्थता धारण कर ली । विषाद से क्या लाभ? श्री शत्रुजय तीर्थाधिपति श्री ऋषभदेव भगवान अचिंत्य चिंतामणि स्वरूप हैं । "उनको वंदन करने के बाद ही मैं अन्नजल ग्रहण करूँगा ।" - उसने मन ही मन निश्चय किया । श्री ऋषभदेव प्रभु का स्मरण करते हुए उसने श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की ओर आगे बढ़ना शुरु किया । उसने पाँवों में कुछ पहना नहीं था, कांटे और कंकरो के कारण उसके पाँव लहूलुहान हो गये थे, दीर्घकालीन तपवाला शरीर था, तृषा से वह पीडित था, शरीर थक कर चूर चूर हो गया था, भूख की पीड़ा तो थी ही, मध्याह्न की कड़ी धूप से अत्यंत तप्त बालूवाले मार्ग पर उसका शरीर उपर से एवं नीचे से जल रहा था, फिर भी मन श्रांत नहीं था । उसके मन में ऐसा ही कुछ होगा क्या... ? गिरिवर दरिसन विरला पावे, पूरव संचित कर्म खपावे... गिरिवर० कांटा आवे कंकर आवे, धोम धखंती रेती आवे, अंतर ना अजवाळे वीरा ! पंथ तारो काप्ये जा... मध्याह्न के बाद के समय में कोई नवीन स्त्री उसके सन्मुख उपस्थित हुई । उसने राजा के समक्ष सुंदर रुचिकर फलों का थाल और पीने के लिए निर्मल जल ढौका । सत्त्वशील उस राजा ने न तो फल खाये, या न जल ग्रहण किया । आश्चर्यचकित हृदयवाला वह स्वच्छ निर्मल बुद्धि सहित उस युवती के साथ खूब प्रशंसा के योग्य आकाशव्यापी प्रासाद में पहुँचा । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रासाद में उसने अनेकविध सुंदर, विचित्र रूपवाली, श्रेष्ठ प्रकार के शृंगार से सज्ज, हरिणी के समान अति सुंदर नेत्रोंवाली, विलास कर रही रमणियों को देखा । उनके बीच से हंसी के समान सुंदर गतिवाली उनकी स्वामिनी सामने आई और राजा सन्मुख खडी रहकर दोनों हाथों की अंजलि जोड़कर इस प्रकार बोली, " हे सुंदर गुणों के महासागर ! आपका स्वागत हो ! स्वागत हो ! हमारे सद्भाग्य के उदय से ही आप का आगमन यहाँ हुआ है । यह हमारा स्त्रियों का राज्य है । जो पुण्यवान पुरुष यहाँ आता है वही हमारा स्वामिनाथ है ऐसा आप समझें ।" नाभाक राजा ने यह सुना । ' यह नया संकट अब कहाँ से आ पड़ा ।' ऐसा वह सोचने लगा... 'यहाँ वाणी से मौन रखना ही श्रेयस्कर है । कहते हैं कि मौन सर्व प्रयोजनों को साधने में सहायक बनता है ।' राजा मौन खड़ा रहा तो मुख्य स्त्री के द्वारा आदेश पाकर दूसरी स्त्रियाँ भी स्नान तथा भोजन आदि की सामग्री तैयार करके उपस्थित हुई । वे बोलीं, " हे प्राणनाथ ! हम पर कृपा करके शीघ्र स्नान करें, यथारुचि भोजन करें तथा जीवन पर्यंत हमारे साथ मनोहर भोगों और उपभोग करें ! यहाँ आपको किसीसे किसी प्रकार का भय नहीं है । यह शीतल जल, यह शर्करामिश्रित द्राक्ष का रस, ये मीठे घेवर, यह घी युक्त खीर आदि का उपभोग कीजिये ।" इस प्रकार प्रथम उन स्त्रियों ने अनुकूल उपसर्ग और बाद में प्रतिकूल उपसर्ग भी किये । चित्त को विचलित किये बिना राजा तो धर्ममार्ग में ही स्थिर रहा । इतने में उसने अपने आप को श्री शत्रुंजय गिरिराज के शिखर पर स्थित देखा । " यह क्या हुआ ?" राजा आश्चर्यचकित हुआ । उसी समय सुगंध से आकृष्ट भ्रमरों की पंक्तियों से युक्त पुष्पों की वृष्टि उसके मस्तक पर देवताओं ने की । राजा के समक्ष Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ अत्यंत तेजस्वी सुवर्ण के कुंडल धारण किये हुए, जय - जयघोष करता हुआ देव (नाग कुटुम्बी का जीव ) प्रगट हुआ और बोला, " सोधर्म देवलोक में सौधर्म देवेन्द्र ने आपकी सद्धर्म-स्थिरता की प्रशंसा की थी, जिसे मैं जरा भी सहन न कर सका और उसी कारण से मैंने आपके ऊपर इस प्रकार अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्ग किये हैं । हे महाभाग्यवान ! आपको इस प्रकार जो क्लेश मैंने पहुँचाया है उसके लिए मैं क्षमायाचना करता हूँ, मुझे क्षमा करें । आपका धर्मविषयक सत्त्व देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ, अतः वरदान माँगिए ! वरदान माँगिए ।" राजा बोला, " वीतराग - सर्वज्ञ का धर्म मुझे प्राप्त हुआ है अतः मैं और कुछ नहीं माँगता, परंतु इस समय तो मुझे विचरण कर रहे तीर्थंकर देव श्री सीमंधर स्वामी को नमन करने की इच्छा है उसे तुम पूर्ण कर दो ।" देव ने उस बात का स्वीकार किया। तत्पश्चात् देवाधिदेव तथा गुरुदेव को नमन करके सत्त्वाधिक शिरोमणि राजा देवता द्वारा सर्जित ( विकुर्वित) विमान में बैठकर महाविदेहक्षेत्र में पहुँच गया । वहाँ सिंहासन, चामर, भामंडल, तीन छत्र आदि आठ महाप्रातिहार्य की शोभा से और करोड देवों से सेवित त्रिभुवनभानु श्री सीमंधर जिनेश्वर को नमन करके उसने पूछा, "स्वामिन् ! मुझे लंबे समय से धर्म में बार-बार विघ्न आते रहते हैं इसका कारण क्या है ?" पहले युगंधराचार्य ने समुद्रपाल राजा तथा उसका भाई सिंह और नाग कौटुंबिक की जो कथा सुनाई थी वह कथा श्री सीमंधर स्वामी ने राजा को सुनाई । फिर वे बोले, " हे भव्य आत्मन् ! कभी भी कोई भी जीव पूर्वकृत कर्म के उदय से मुक्त नहीं हो सकता । यहाँ तुम्हारा ही दृष्टांत है । तुमने (समुद्र के छोटे भाई) सिंह के भव में बड़े भाई समुद्र को शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा में अंतराय किया था, भाई को राजा के द्वारा रोकने का Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रयत्न किया था । तुम्हें सोपान पर से धक्का देनेवाला वृद्ध पुरुष अर्थात् वही तुम्हारा अंतराय कर्म है ऐसा समझो । उस नाग का जीव भी पूर्व काल में चंद्रादित्य राजा के भव में विद्यमान कर्मों का क्षय करके सौधर्म देवलोक में देव बना है और अब वह यहाँ आया है ।" वह देव तथा नाभाक राजा ने अपने पूर्वभव के चरित्र श्री सीमंधर स्वामी के पास सुना, पश्चात् प्रीतिमय बने हुए वे दोनों प्रभु को प्रणाम करके वहाँ से शत्रुजय गिरिवर पर गये । वहाँ श्री शत्रुजय पर्वत पर उन दोनों ने (नाभाकराजा तथा चंद्रादित्यदेव ने) श्री आदिनाथ स्वामी का स्नात्र-पूजा महोत्सव किया, तीन अट्ठाई (=आठ-आठ दिन) महोत्सवपूर्वक प्रभुजी की सुंदर भक्ति करके स्वयं को धन्य-कृतकृत्य समझने लगे । तत्पश्चात् भगवान की पूजा सदा-सर्वदा होती रहे इस हेतु से उन दोनों ने प्रभु के सभी अंगों के लिए सुंदर अलंकार बनवाये तथा प्रभु की महापूजा के समय क्रमपूर्वक सभी अलंकारों से प्रभु की सुंदर अंगरचना की । उन दोनों ने जिनभवन हेतु माणेक-रत्न जडित सुवर्ण की धजा प्रदान की और इस प्रकार भक्ति की उत्तम अभंगरंगरीति बताई । इस प्रकार मायारहित उन दोनों ने अति सुंदर प्रभावना के द्वारा सर्वज्ञ के शासन की उन्नति का चिरकालीन विस्तार किया । ऐसा तरणतारण तीर्थ प्राप्त होने के पश्चात् नाभाक राजा का उत्साह अनंतगुणा बढ़ गया । उसकी रोमराजी अति विकसित हुई । उसके बाद वह नाभाक राजा धर्मशाला के स्थान में गया । वहाँ उसने 'जिसे जो चाहिए वह ले जाओ' ऐसी जय-विजयप्रद घोषणापूर्वक कल्पद्रुम को भी लज्जित कर दें उस प्रकार याचकों को अपने धन का खूब खूब दान दिया तथा उसके द्वारा जगत को दारिद्र्यरहित बना दिया । तत्पश्चात् शुभ पुण्य से पवित्र बना हुआ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ तथा जिसने अपने मन से सारा पौद्गलिक ममत्व दूर किया है वह ( अथवा जिसने संपूर्ण मलिनभाव दूर किया है ऐसा वह) राजा गुरुओं के साथ अपने नगर की और चला । उस समय का उसका विनम्रताभाव भी अत्यंत प्रशंसनीय था । उसने पैरों में पादत्राण कुछ भी पहना न था, गुरु की बाईं और रहकर अर्थात् गुरु को अपनी दाहिनी और रखकर मार्ग पर चलता हुआ वह गुरुओं को ऊँचीनीची भूमि के बारे में बताता रहता था । इस प्रकार गुरुभक्तों में मानों वह अग्रणी बना था । चंद्रादित्यदेव भी गुरु की सेवा तथा सान्निध्य के लिए उत्सुक था ही । इसलिए उसने सेना के प्रमाण का छत्र बनवाकर सेना पर रखा, सद्गुरु और राजा की दोनों और नाचता - कूदता वह चामर ढालता रहा, संवर्तककाल के पवन से राजा तथा गुरुओं के मार्ग से कंटक आदि दूर करता रहा, सुगंधी जल की वृष्टि के द्वारा मार्ग में उड़ती धूल को बंद कर दिया, पाँच वर्ण के सुवासपूर्ण दैवी पुष्पों को भूमि पर बिछाया और सब से आगे रहकर एक योजन ऊँचे ध्वज को फहराता रहा । " इन दोनों की जो अवगणना करेंगे वे स्वयं प्रलय को प्राप्त करेंगे तथा इनके चरणकमलों में झुकनेवाले महान लक्ष्मी एवं शोभा के द्वारा वृद्धि प्राप्त करेंगे ऐसी घोषणापूर्वक आकाश में दैवी दुंदुभी बजाता था । " मार्ग में हाथों में उपहार लेकर अनेक राजा वह नाभाक राजा का सत्कार कर रहे थे । इस प्रकार प्रवर्धमान भव्य शोभावान एवं लक्ष्मीवान राजा अपने नगर में पहुँचा । गुरुओं ने भी राजा को सम्यक्त्व सहित बारह अणुव्रत के विषय में समझाया और उन व्रतों के पालन के लिए उसे प्रेरित किया । गुरुजन नगर के बाहर उद्यान में रहे । नाभाक राजा को देव का सान्निध्य की प्राप्ति थी, इसलिए वासुदेव की तरह उसने दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के तीन खंड आसानी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जीत लिए । सोलह हज़ार राजाओं पर उसकी आज्ञा प्रवर्तित की । इस प्रकार उसने राज्य का एवं स्व धर्म का पालन किया । राज्य का फल प्राप्त किया । वह त्रिकाल जिनपूजन करता था तथा उभयकाल छः आवश्यक करता था । वह राजा ने प्रत्येक गाँव में ऊँचे तथा तोरणवाले जिनमंदिरों का निर्माण करवाया । हज़ारों की संख्या में धर्मशालाओं का निर्माण करवाया । हिंसा, असत्य, परद्रोह, मिथ्या-दोषारोपण, चुगली, झगड़ा, ईर्ष्या, परनिंदा आदि बुरे भावों को अपने राज्य में से निःशेष करवाये । विशेषतः जुआ, शिकार, बड़ी चोरी, मांसभक्षण, मदिरापान, परस्त्रीसेवन, वेश्यासेवन आदि सात व्यसन निर्मूल करवाये । जो कोई व्यक्ति मिथ्यात्व, पाप, अन्याय मन से भी करता तो उसे वह चंद्रादित्य देव स्वयं शिक्षा करता था । इस कारण से उस देश के निवासी केवल पुण्यबुद्धि-धर्मबुद्धि से राजा के मार्ग का अनुसरण करते थे । कहा गया है : यथा राजा तथा प्रजा । इस प्रकार पृथ्वी पर जैसे जैसे पुण्य की वृद्धि होती गई वैसे वैसे ठीक समय पर वर्षा, असीम धान्य की प्राप्ति, अनेक पुष्प देनेवाले तथा फलों के वृक्ष-अत्यधिक दूध देनेवाली गायें, खान में से अनेकानेक रत्नों की प्राप्ति, महालाभप्रद व्यापार, सुखपूर्वक संचारवाला विदेशगमन आदि सब होता गया । प्रजा रोगरहित, भयरहित, महान सुखवाली, दीर्घायुषी, पुत्र-पौत्रादि संतानों की वृद्धिवाली बनी । हाँ । जहाँ धर्म की सर्वोपरिता हो वहाँ यह सब शुभ चीजें अत्यंत सुलभ हो उसमें क्या आश्चर्य ? __ श्री नाभाक नराधीश के राज्य में लोगों के धर्म तथा सुख को देखकर धर्मरहित देव लज्जित होकर मानों वहाँ से देवलोग में पलायन हो गये थे ऐसा लगता था । इस प्रकार राजा ने दीर्घकाल तक स्थिर विशाल राज्य किया । अंत समय पर उस बुद्धिमान राजा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ ने विधिपूर्वक अनशन किया, उसे सुंदर रूप से पूर्ण किया और वह पहुँच गया बारहवें अच्युत देवलोक में ऋद्धिमंत देव के रूप में । वहाँ से च्यवित होकर मनुष्य भव प्राप्त करके वह मोक्ष प्राप्त करेगा । चंद्रादित्यदेव भी मनुष्यजन्म प्राप्त करके सुंदर धर्मआराधना करके शाश्वत सुख का स्वामी बनेगा । देवद्रव्य के रक्षण से राजा समुद्रपाल तीन भव में मोक्ष में गया तो सिंह ने और नाग कौटुंबिक ने देवद्रव्य के भक्षण से उन्नीस कोटाकोटि सागरोपम के दीर्घकाल तक संसार में भयंकर दुःख सहे । श्री समुद्रपाल राजा, श्री नाभाक राजा, तथा चंद्रादित्य राजा का यह कथानक सुनकर बुद्धिमान जनों को देवद्रव्य के भक्षण तथा उपेक्षण आदि से सदा-सर्वदा दूर रहना चाहिए । इसका खूब सुंदर संरक्षण-सदुपयोग-वहिवट करना चाहिए । यह कथा श्रीमद् अंचलगच्छेश आचार्य श्री मेरुतुंगसूरीश्वरजी महाराज ने वि.सं. १४६४ में लिखी है । इस प्रकार देवद्रव्य के अधिकार में श्री नाभाकराज कथा पूर्ण हुई । श्री संघ का सदैव शुभ हो । कल्याण हो । मंगल हो । परिशिष्ट (१) देव-गुरु की कृपा :- भक्तहृदय शुभप्राप्तियों के लिए देवगुरु की कृपा-प्रभाव को ही प्राधान्य देता है । हरेक प्रकार के कर्म का क्षयोपशम देवगुरु के प्रभाव से होता है - ऐसा भक्तहृदय श्रद्धापूर्वक स्वीकार करता है । देखिए 'जय वीयराय' सूत्र में 'होउ ममं तुहप्पभावओ भयवं' ये शब्द । मुनि को शातापृच्छा में उनका उत्तर - 'देवगुरु पसाय', श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान के स्तवन में : 'मुख्य हेतु तुं मोक्षनो' इत्यादि वचन भी प्रभु के-गुरु के अचिंत्य प्रभाव को महत्त्व देता है । भक्त के हृदय में देव तथा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु का बहुमान जितना अधिक उतनी ही देव-गुरु की कृपा उस पर अधिक ऐसा सहजरूप से समझा जा सकता है । नमुत्थुणं सुत्र में भी गणधर भगवंत अरिहंत भगवंत को अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, रागद्वेष पर विजय दिलानेवाले, संसारसागर से पार उतारनेवाले, सर्वज्ञता देनेवाले तथा सब से बढ़कर-मोक्षप्रदाता कहकर भगवत् तत्त्व का कितना अद्भूत अपना हृदय-बहुमान व्यक्त करते हैं ! कठिनतम मोक्षमार्ग की साधना ऐसे पूज्यों के अनुभाव-प्रभाव से ही संभव होती है ऐसा स्वीकार भक्त का हृदय निरंतर करता ही है । देव-गुरु को हृदय में जितना अधिक स्थापित किया जाय, (उनके महत्त्व का स्वीकार किया जाय) उतना कर्मों का क्षयोपशम अधिक होने लगता है तथा मान कषाय आदि औदायिक भाव मन में प्रवेश पा नहीं सकते । देवतत्त्व का और गुरुतत्त्व का विनयबहुमान भाव से ही भक्तहृदय गुणस्थानक की श्रेणि पर आगे आगे जा सकता है ऐसा खयाल भक्तहृदय में हो तो वह बहुत अच्छा है । (२) 'श्री शत्रुजय माहात्म्य' शास्त्र के श्रवण की महिमा 'हे जीवों ! तप, जप, दान तथा सत्फलों का प्रयोजन ही क्या है ? तुम सब एक बार श्री शत्रुजयगिरि के माहात्म्य का श्रवण करो ! धर्मप्राप्ति की इच्छा से सभी दिशाओं में तुम सब परिभ्रमण किस हेतु से कर रहे हो ? केवल एक बार जाकर श्री पुंडरीकगिरि की केवल छाया का ही स्पर्श करो ! इसके अतिरिक्त कुछ भी करने की आवश्यक्ता नहीं है । इस मानवजन्म को प्राप्त करके तथा अनेक शास्त्रों को श्रवण करके उसके परिणाम के रूप में जो कुछ करना है, वह सब कुछ श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की कथा का श्रवण करने से सफल बनता है । अतः तुम सब इस प्रकार श्रवण कार्य करके अपना जन्म सफल करो !' Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ 'हे जीवों ! अगर तुम तत्त्व जानना चाहते हो, अगर धर्माचरण करने की तुम्हारी इच्छा है, तो अन्य सर्व कार्य को छोड़कर श्री सिद्धगिरिजी महातीर्थ की निश्रा का स्वीकार करो ! श्री शत्रुंजय तीर्थाधिराज पर, श्री जिनेश्वर भगवंत का ध्यान करने के समान अन्य कोई श्रेष्ठ कार्य इस जगत में नहीं है । इस तीर्थ के समान परम तीर्थ अन्य कोई नहीं है तथा इस परम पवित्र तीर्थक्षेत्र पर श्री जिनेश्वरदेव के ध्यान के समान अन्य कोई धर्माचरण नहीं है ।' अन्य तीर्थों में जाकर उत्तम ध्यान, शील, दान तथा पूजन के द्वारा जो फलप्राप्ति होती है, उससे अधिक फल श्री शत्रुंजय की कथा का श्रवण करने से प्राप्त होता है, अतः हे पुण्यवान आत्माओं ! तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय गिरिराज के माहात्म्य को तुम सुनो, जिससे आपत्तिरहित संपत्ति की प्राप्ति होती है। पू.आ. श्री धनेश्वरसूरीश्वरजी महाराज शत्रुंजय तीर्थ की महिमा भगवान श्री महावीर स्वामी अपनी देशना में फरमान करते हैं : जिसने श्री शत्रुंजय की यात्रा नहीं की है, वहाँ विराजमान श्री ऋषभदेव की जिसने पूजा नहीं की है वह अपना जीवन व्यर्थ हार गया है । अन्य तीर्थों में अनेक बार यात्रा करने से जो पुण्य मनुष्य को प्राप्त होता है वही उतना ही पुण्य इस गिरिराज की यात्रा केवल एक बार करने से प्राप्त होता है । यह गिरिराज तो भगवान श्री आदीश्वर प्रभु से अलंकृत है । अतः जिस प्रकार तप आत्मा के दुष्ट कर्मों का भेदन करता है, उस प्रकार यह तीर्थ निबिड़ पाप का भी भेदन कर डालता है । यदि तीव्र तप किया हो, उत्तम प्रकार का दान दिया हो और अगर जिनेश्वर प्रभु प्रसन्न हुए हों तो ही इस गिरिराज की क्षणभर भी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सेवा संभव होती है । पृथ्वी पर अन्य पुण्यप्रदाता जो सभी तीर्थ हैं, उन सब का माहात्म्य तो वाणी के द्वारा प्रकाशित किया जा सकता है, परंतु इस तीर्थाधिराज का माहात्म्य कहने के लिए तो जगत के सर्व गुणों के ज्ञाता-दृष्टा केवली भगवान भी जानते हुए भी समर्थ नहीं हैं । (सर्ग-१) । भगवान श्री चंद्रप्रभस्वामी देशना में बताते हैं : सर्व प्रकार से अस्थिर इस संसार में शत्रुजय तीर्थ तथा अरिहंत का ध्यान तथा दो प्रकार का धर्म-यही साररूप है । पुंडरीकगिरि के सेवन से, श्री जिनेश्वर के ध्यान से तथा दो प्रकार के धर्म से शाश्वत सुख की सिद्धि संभव है । जिस प्रकार देवो में अर्हत्, ध्यान में शुक्लध्यान तथा व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है, उस प्रकार सर्व तीर्थों में यह तीर्थ मुख्य है । (सर्ग-८) । भगवान श्री अजितनाथ देशना में बताते हैं : यह शत्रुजयगिरि सदा शाश्वत तथा स्थिर है तथा इस संसार-सागर में डूबते हुए प्राणियों को जीवन प्रदान करनेवाले द्वीप के समान है । जिसने इस गिरि की सेवा की है उसे दुर्गति का भय कैसे हो सकता है ? इस शैल की तथा शील की - इन दोनों की सेवा से उत्तम फल प्राप्त होता है, इसमें भी शील से सिद्धि का संदेह रहता है, परंतु इस शैल की सेवा से तो सिद्धि निःसंदेह प्राप्त होती है । इस शत्रुजय गिरि पर जो सिद्ध हुए हैं और जो सिद्ध होंगे उन सब को जानते हुए भी केवली भगवान एक जिह्वा से कह नहीं सकते। इस तीर्थ के सर्व शिखरों में, जिनेश्वरों की तरह जो, महिमा है उसे कोटि वर्षों में भी वर्णित किया नहीं जा सकता । (सर्ग-८) भगवान श्री महावीर स्वामी बताते हैं : इस गिरिराज की छाया में जो एक क्षणभर के लिए ही रहकर अत्यंत दूर चला जाता Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ है वह भी अपने पुण्य से शत्रुंजय गिरिराज प्राप्त न करनेवाले लोगों में सेवा के योग्य होता है और वह कभी भी जिनेश्वर को छोड़कर अन्य किसीकी उपासना करता नहीं है यह नि:शंक बात है, क्योंकि शुभ बुद्धिवाली आत्मा चिंतामणि को प्राप्त करने के पश्चात् कंकर को क्यों ग्रहण करने जायेगा ? (सर्ग - १५) पू. आ. श्री धनेश्वरसूरिजी महाराज लिखित श्री शत्रुंजय माहात्म्य ग्रंथ में से उद्धृत (३) देवद्रव्य के विषय में कुछ विशेष जानने योग्य देवद्रव्य से जो वृद्धि/समृद्धि होती है, गुरुद्रव्य से जो धन प्राप्त किया जाता है वह धन कुल का नाश करता है । वह व्यक्ति मरकर नरक में जाता है । (उपदेश सार) यदि देवद्रव्य की वृद्धि करनेवाला जीव तीर्थंकरपद को प्राप्त करता है तो उसका भक्षण करनेवाला जीव अनंत संसारी बनता है । ( उपदेश सार) श्री महावीरप्रभु समझाते हैं: है गौतम ! देवद्रव्य का भक्षण करने से तथा परस्त्री के साथ दुराचार करने से जीव सात बार सातवीं नारकी में जाता है । ( उपदेश सार) जो जीव देव संबंधी ली हुई वस्तु का नाश करता है, देवद्रव्य देना स्वीकार करने के बाद देता नहीं है, देवद्रव्य के नाश के समय उपेक्षा करता है वह भी संसार में भटकता है । (उपदेश सार) देवद्रव्य की रक्षा करनेवाले जीव का संसार अल्प होता है, तथा देवद्रव्य की वृद्धि करनेवाला जीव तीर्थंकरपद को प्राप्त करता है । ( सूक्त मुक्तावली ) देवद्रव्य का भक्षण - गुरुद्रव्य का भक्षणवाला - परदारा सेवनवाला Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर तरह के प्राणी से निर्वाह करनेवाला ब्राह्मिन को चाण्डाल बताया गया है । (सुभाषित पद्यरत्नाकर) (४) तेरे दुःख का कर्ता तू स्वयं ही जैन कविप्रवर कहते हैं : "सुखदुःख कारण जीवने कोई अवर न होय, कर्म आप जे आचाँ, भोगवीए सोय ।" अर्थात् जीव के सुखदुःख के लिए कारणरूप कोई अन्य नहीं होता। जो कर्म स्वयं किये हैं उसे स्वयं ही भोगना होता है । सभी जीव पूर्वकृत कर्म के फल का - विपाक का अनुभव करता है, अपना जो कुछ भी बुरा होता है उसमें जीव स्वयं ही कारणरूप होता है ।। प्रत्येक जीव को पूर्वकृत दुष्कर्म ही नि:शंक दु:खों के कारणरूप बनता है । कोई किसी को दुःख देता है ऐसा निर्णय करना या विचार करना गलत है । जीव स्वयं के उपार्जित कर्म का फल ही स्वयं भोग रहा है । जो उपार्जित नहीं किया है ऐसा कर्म कौन भोगता है ? कोई नहीं । स्वयं का ही उपार्जित कर्म, बिना फल दिये किसका क्षय हुआ है ? किसीका भी नहीं । तो फिर स्वयं के ही बांधे हुए कर्मों को भोगते समय जीव दुःखी किसलिए होता है ? सभी जीव कर्मबंधन स्वयं ही करते हैं, परंतु उन कर्मों के उदय-विपाक के समय पराधीन बन जाते हैं । (इसीलिए कर्म के बंध समय ही सावधान रहो ! कर्म के उदय के समय किसी अन्य व्यक्ति को दोष देना बंध करो ।) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ (५) समुद्र - सिंह - नागगौष्टिक का भवभ्रमण ( २ ) सिंह | देवद्रव्य के भक्षण के | पाप से दो बार सातों | सात नारकी में भटका (१) समुद्रपाल राजा पहला भव समुद्रपाल राजा समुद्रपाल राजर्षि दूसरा भव अनुत्तर विमानवासी देव तिसरा भव मनुष्य बनकर संयमी बनकर मोक्ष में देवद्रव्य के सदुपयोग आदि के द्वारा तीसरे भव में मोक्ष बारह बार गधे का अवतार तीसरा भव | मरने के बाद भानु नामक ग्रामीण मनुष्य । | प्रथम हिंसक और बाद में हिंसा का नियम ग्रहण (४) करनेवाला मुनि को - (३) नागगौष्टिक (१) नागगौष्टिक (२) मरकर व्यंतर (३) देवद्रव्य भक्षक होने के कारण सोम नामक कौटुंबिक पुत्र । पाँच वर्ष की वय में माता की मृत्यु । देव के चंदन से शरीर पर विलेपन | मुनि की | दान-नाभाक राजा (५) | बना। मंदिर का निर्माणअच्युत देव बनने के बाद (६) | मनुष्य बनकर मोक्ष में जायेगा । [ उन्नीस कोटाकोटि सागरोपम संसार भ्रमण सिंह का और नाग गौष्टिक का दोनों का ।] हत्या | सातवीं नारकी फिर भवभ्रमण खेत त- मज़दूर-मुनि को प्रतिलाभ मृत्यु के बाद चंद्रादित्य राजा, जिनमंदिर का निर्माण कर पापमुक्त बनकर (७) सौधर्म देवलोक में चंद्रादित्य नाम का देव । बाद में मनुष्य बनकर मोक्ष में जायेगा । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रपाल राजा तो देवद्रव्य के सुंदर सदुपयोग के द्वारा तीसरे भव में ही मोक्ष में पहुँच गये, जब कि उसका छोटा भाई सिंह और नागगौष्टिक के जो भव यहाँ बताये हैं वे बहुत बड़े बड़े बताये हैं । वास्तव में उन्होंने उन्नीस कोडाकोडी सागरोपम की अति दीर्घ काल प्रायः एकेन्द्रिय आदि अत्यंत कष्टप्रद गति में ही गँवाये हैं, ऐसी संभावना है । कर्मबंध के समय अत्यंत सावधान रहें उसी में ही बुद्धिमानी है । (६) श्री नाभाकराज चरित्रवर्ती शास्त्रपाठा:जिनमहत्त्व:सौभाग्यारोग्य भाग्योत्तम महिममति ख्याति कान्ति प्रतिष्ठातेज शौर्योष्म संपद्विनय नय यशः सन्तति प्रीति मुख्याः । भावा यस्य प्रभावात्प्रतिपदमुदयं यान्ति सर्वे स्वभावात् श्री जीरापल्लिराजः स भवतु भगवान् पार्श्वदेवो मुदे वः ।।१। (शजय माहात्म्य) ये शुद्धभावेन निभालयन्ति भव्या महातीर्थमिदं कदाचित् किं श्वभ्रतिर्यग् भवसम्भवोऽस्य न शेषगत्योरपि जन्म तेषाम् ॥२३॥ योऽस्य नाम हृदि साधु वावदिः क्लेशलेशमपि नो स सासहिः । योऽस्य वर्त्मनि मुदेव चाचलिः संसृत्तौ न स कदापि पापतिः ॥२६॥ अन्यग्रन्थेषुः-पंचाशदादौ किल मूलभूमे-दशोर्ध्वभूमेरपि विस्तरोऽस्य। उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि मानं वदन्तीह जिनेश्वराद्रेः ॥२८॥ भागवते-दृष्ट्वा शत्रुजय तीर्थं स्पृष्ट्वा रैवतकाचलम् । स्नात्वा गजपदे कुण्डे पुनर्जन्म न विद्यते ॥२९॥ नागरपुराणे-अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रया यत्फलं भवेत् । श्री शत्रुञ्जयतीर्थेश-दर्शनादपि तत्फलम् ॥३०॥ तीर्थमालास्तवे-अतोधराधीश्वर!भारतीभुवंतथाधिगम्योत्तममानुषंभवम्। युगादिदेवस्य विशिष्टयात्रया विवेकिना ग्राह्यमिदं फलं श्रियाः ॥३१॥ सुखेषु दुःखेषु मुख्यं कर्मैव कारणम्... ॥४२॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्रव्योपभोग कुपरिणाम :देवद्रव्योपभोगेन घोरां यास्यति दुर्गतिम् ॥५२॥ निश्चित्येत्यवदद् भ्रातः श्वभ्रपातकात् । न किं बिभेषि यद्देव-द्रव्यभोगमपीच्छसि ॥५३॥ देवद्रव्येण यत्सौख्यं यत्सौख्यं परदारतः । अनन्तानन्तदुःखाय तत्सौख्यं जायते ध्रुवम् ॥५४॥ वरं सेवा वरं दास्यं वरं भिक्षा वरं मृतिः । निदानं दीर्घदुःखानां न तु देवस्वभक्षणम् ॥५६॥ कुटुम्बं सकलं क्षीणं दैवस्वेनैव पोषितम् ॥८६॥ देवद्रव्योपभोगेन कुटुम्बस्य क्षयो भवेत् ॥८७॥ जिनपूजा परद्रव्येणापि :विधायाष्टाह्निकां नाग-नामग्राहं जगत्पतेः पूजाभोगादि सत्कृत्यैः स निधानार्धमव्ययत् ॥७६ ॥ देवद्रव्येण देवपूजनम् :साध्विदं विवधदे देवद्रव्यं यद्देवपूजने व्ययितम् ॥१२॥ दीयमानं सुकृतं:- अतो यातास्मि तत्रैव परं यात्राद्वयस्य मे । प्रत्यब्दं सुकृतं देयं प्रपेदे सोऽपि तद्वचः ॥१४॥ यतः-यद्वस्तु दीयते चेत्तत् सहस्रगुणमाप्यते । तद्दते सुकृते पुण्यं पापे पापं च तद्गुणं ॥१५॥ दीयमानं धनं किञ्च धनिकस्यापचीयते । सुकृतं दीयमानं तु धनिकस्योपचीयते ॥१६॥ श्राव्यते सुकृतं याव-द्योन्तकालेऽपि तावतः । निजश्रद्धानुमानेन स तदैवाश्नुते फलम् ॥१७॥ ततः श्रावयिता पश्चा-द्विधत्ते मानितं यदि तदा सोऽप्यनृणः पुण्य-भाग्भवेदन्यथा न तु ॥९८॥ अश्रावितोऽपि श्रद्धते सुकृतं यः क्वचिद्गतौ । जानन् ज्ञानादिभावेन सोऽपि तत्फलमाप्नुयात् ॥१९॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अन्यथा सुकृतं तन्वन् स्वजनः स्वजनाख्याय । व्यवहार-प्रीतिभक्ती-रेव ज्ञापयति ध्रुवम् ॥१०॥ (पापद्रव्यस्य दुष्टता) पापद्रव्येण यत्पापेषु एव बुद्धिः प्रजायते ॥११२॥ (पापस्य दुष्टता) न हि श्रेयोऽतिपापिनाम् ॥११४॥ (देवद्रव्य विनाशफलं) ततो निपतितो घोर-संसारे दुःखसागरे । देवद्रव्यविनाशस्य ज्ञेयं सर्वमिदंफलम् ॥१२१॥ अन्यायात्स्वल्पदेवस्य-भक्षणादपि यदभूत् शैवः श्रेष्ठी सप्तकृत्वः श्वातो वै त्याज्यमेव तत् ॥१२२॥ देवद्रव्यमयैः पूजावशिष्टैश्चन्दनैर्वपुः । विलिप्याकाण्ठमाछाद्य वाससा पर्यटत्यसौ ॥१४०॥ ऋषिहत्या महापापं तत्कालं स्यात्फलप्रदम् ॥१४५ ॥ दुष्टं कुष्टं भवद्देहेऽभवद्देवविलेपनात् ॥१६४॥ न पूर्वकृतकर्मतः विमुच्येत क्वचित्कोऽपि ॥२६२॥ + [श्री अजितनाथस्वामी जब गृहस्थ अवस्था में थे तब] स्वामीने अच्छी तरह से स्नान किया, दिव्य आभूषणों तथा वस्त्रों का परिधान किया, अपने राजमहेल में रहे श्री गृहजैनमंदिर में बिराजमान श्री अरिहंत परमात्मा की प्रतिमाओं की पूजा की । [श्री शत्रुजय माहात्म्य] है इस भरतक्षेत्र में मिथ्यादृष्टिवाले जीवों पैकी कतिपय जीवों यहाँ मनुष्य का आयुष्य पूर्ण करके भद्रक परिणामी होने से श्री महाविदेहक्षेत्र में मानवजन्म पाकर आयुष्य की नौमी साल में केवलज्ञानवाले बनेंगे । अहो भद्रक परिणाम का लाभ ? + एक दिन में देवलोक में से आयुष्य की पूर्णाहूति होने पर जितने देवों का च्यवन होता है इतनी संख्या में भी मनुष्यों तो नहीं है, इसलिए 'मुझ को मनुष्य बनने का सौभाग्य कैसे मिलेगा' ऐसा सोचने पर देवों दु:खी होते है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग-सर्वज्ञ-देवेन्द्रपूजित-परम सत्यवादी-त्रिभुवनभानवे नमः (7) श्री जैन-संघ की संस्थाओं का सुंदर वहिवट संबंधित प्राथमिक सावधानी अभी अभी श्री जिनमंदिर-जैन उपाश्रय आदि में चौरी-ठगबाजीविश्वासघात आदि की बातें सुनने में आती है । इस विषय में कतिपय सामान्य सावधानी अत्र सादर प्रस्तुत है :रसीद बूक कोई भी कर्मचारी वर्ग अपनी खुद ही छपवाकर उसका दुरुपयोग न करें इसलिए सावध रहेना । पैसे जमा करनेवाले की उपस्थिति में ही पावती लिखी जाय ऐसा खयाल रखें । रसीद बूक में और चेक बूक में उपर-नीचे दोनों बाजु कार्बनवाला पेपर्स (Double sided Carbon) ही इस्तेमाल किजिए, जिससे पावती/चेक की दोनों बाजु सीदा/उलटा अक्षर आ जावे । पोस्ट-रेलवे में ऐसी प्रथा होती है । पार्टी की और पेढी की दोनों रसीद पर पैसे जमा करनेवाले की सही करवाना जरुरी समजें । चेक एकाउन्ट पेयी - Accounts payee लिखना और इसके लिए परफोरेटेड पद्धति रखनी । बेन्क एकाउन्टस में पैसा जमा करने के समय ही बेन्क की पासबूक में एन्ट्री करवाना और बराबर चेक करना । अच्छे प्रामाणिक चार्टर्ड एकाउन्टन्ट द्वारा एकाउन्टस रखने की ऐसी पद्धति तय करवानी ताकी चोरी/मिस्चिफ का अवकाश ही न रहे । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ - आंगी में से दूसरे दिन चांदी का वरख और बादला का उतारा (WASTE) बराबर मिले ऐसी व्यवस्था करना । पेढी में जो जो आवक (Income) हो इसकी व्यवस्थित रसीद बनाने की व्यवस्था करनी, यह सब रकम बेन्क में एक सप्ताह में या इसके पहले अवश्य जमा करवाना । यह रकम में से कोई भी खर्च सीधा (DIRECT) नहीं ही करना। पेढी के दिन-ब-दिन रोकड खर्च करने के लिए रोकड रकम बेन्क एकाउन्टस में से ही अलग प्राप्त करना । दो नंबर के पैसे कभी कभी अच्छे सज्जन को भी भूल में डाल सकते हैं । मंदिर आदि का भंडार व्यवस्थित (मुद्रा) सील-तालावाला रखना, इसमें कोइ छेडछाड न हो सके ऐसी सावधानी रखनी। भंडार पांच सज्जनो की उपस्थिति में खोलना, रकम बराबर गिनती करनी, रसीद बनाकर जमा करनी, बेन्क में रखनी, इसमें से सीधा खर्च कभी नहीं करना ! 'पैसा अपने हाथ से ही भंडार में डालो ।' ऐसा बोर्ड मंदिर-उपाश्रय में रखना । कोई व्यक्ति भूल से ऐसे ही भंडार आदि पर पैसे रखकर चले गए हो तो दूसरा व्यक्ति पैसा भंडार में रखे यह खूब औचित्यपूर्ण है । "साधु-साध्वी बिमारीवाले हो गए हैं, इनको अस्पताल में दाखिल किए गए हैं, इनकी सारवार के लिए रकम दो ।" ऐसा झूठा वचन फोन या रुबरु कहकर पैसे की चोरी करनेवाले से सावधान रहना ! कोई भी चीज की खरीदी बिना, कई दफे बोगस बिल पेढी में आ जाते है । इस से सावधान ! Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी उठावगीर आराधक श्रावक-श्राविका के रूप में आकर पूजारी को विश्वास में लेकर प्रभुजी के आभूषणादि की चोरी करके चले जाते हैं । ६३ जो श्री संघ में / संस्था में अपना वहिवट में पिंजरापोल आदि न हो तो इनको जीवदया की रकम ऐसी पशु-पक्षी संस्था को तुरंत दे देना न्यायी रहेगा । अगर श्री संघ में / संस्था में देवद्रव्य / ज्ञानद्रव्य आदि की रकम खुद की जरुरियात से अधिक हो तो ऐसी रकम दूसरी जरुरियातवाले संघ/संस्था को देनी चाहिए । श्री संघ/संस्था के सभी मानद कार्यकर्ता/कर्मचारी वर्ग की शाख अच्छी है । (Your credit is good), लेकिन प्रभु की / संस्था की पूंजी जो दानवीर लोगो ने भाव से श्रद्धा से दान में दी हो इसका अच्छा वहिवट - सदुपयोग भी इतना जरूरी है । प्रभु की - श्री संघ की पेढी का सुंदर न्याय-नीतिसदाचारपूर्ण वहिवट करनेवालों को तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन तक की प्राप्ति होती है यह कितनी बडी कुदरती भेंट ! पत्र व्यवहार : युनाइटेड सेल्स कोर्पोरेशन २०१ / ११ नागदेवी स्ट्रीट, मुंबई - ४००००३ पं. भुवनसुंदरविजयजी गणी पं. गुणसुंदरविजयजी गणी वि.सं. २०६२, जेठ वद - १२ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सुनहरी आर्षवाणी देवद्रव्य के भक्षण के कारण रुद्रदक्ष ब्राह्मण बीच बीच में तीर्यंच का भव करके सातों नारकी में घोरातिघोर दु:ख पाया। बाद में मनुष्य बनकर आलोचना-प्रायश्चित से शुद्ध हुआ । (द्रव्य सप्ततिका) देवद्रव्य के भक्षण से सागर शेठ बीच बीच में तीर्यंच गति में भव करके सातों सात नारकी में दो दफे नरक की जालीम-घोर-भयंकर वेदना पाया । उपरांत हजारो-हजारो तिर्यंच गति के कष्टमय जन्म पाया । (द्रव्य सप्ततिका) प्रभुद्रव्य के दीपक का खुद का काम में अंगत उपयोग से श्राविका ऊंटनी बनी । प्रभुद्रव्य भक्षण-उपेक्षण से तोबा ! तोबा! देव के धन से धनवान बनने की इच्छावाला मनुष्य सचमुच मूर्ख है, वह जिन्दा रहने की आशा से ज़हर खाने का काम करता है । अन्याय से अर्जन किया हुआ धन दस साल तक अपनी पास रहता है, ग्यारहवें वर्ष तो मूल धन सहित वह नाश हो जाता है । मनुष्य को चाहिए कि वह नीति से उपार्जन किया हुआ धन से अपनी आत्मा की रक्षा करें । जो व्यक्ति अन्याययुक्त धन से जीवननिर्वाह करता है, वह सर्व (सत्) कर्म से बहिष्कृत है ।। अन्यायोपार्जित धन अनेक दोष पैदा करता है । न्याय-नीति के अर्जित धन से किया हुआ धर्म निर्व्याजनिष्कपट होता है । जहाँ धन न्याय-नीतियुक्त होता है वहाँ लक्ष्मी का वास होता - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाभाकराज चरित्र For Private & Persona Use Only Bharat Graphics, Ahmedabad-380001 Phu B (M) 9925020106, (079) 22134176