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॥ श्री वीतराग-सर्वज्ञ-त्रिभुवनभानु-परम सत्यवादी परमात्मने नमः ॥
प्रस्तावना देवद्रव्य भक्षण-उपेक्षण महापाप
- पं. श्री भुवनसुंदरविजयजी गणी समस्त जैन शासन-जिनाज्ञा-जिनवचन द्वादशांगी में समाविष्ट है । ये वचन वीतराग, सर्वज्ञ, यथास्थित वस्तुवादी जिनेश्वर देवों द्वारा कहे गये हैं तथा चौदह पूर्वधर गणधरों द्वारा ये जिनवचन सूत्र-निबद्ध हुए हैं । सूत्र सरलता से समझ में आ सके इस हेतु से पश्चात्वर्ती चौदह पूर्वधर, संविग्न, गीतार्थ आचार्य भगवंत आदि ने इन सूत्रों पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति-टीका आदि की रचना की है । हम जैनों के लिए ये पंचांगी आगम प्राण-त्राण-आधार-जीवन तथा सर्वस्व स्वरूप हैं ।
___ आगम में अर्थात् सूत्र में निबद्ध न हो फिर भी संविग्न-गीतार्थ आचार्यों की परंपरा में जो चला आ रहा हो, उसे भी सूत्र के समान ही महत्त्वपूर्ण मानकर जैनसंघ को अपनाना होता है । यह बात स्वयं आगमशास्त्र ही बताते हैं । ऐसी परंपरा-व्यवहार या आचरणा को शास्त्रों में 'जीत आचार' कहा गया है ।
शास्त्रों के अर्थघटन में जब मतभेद खड़े होते हैं तब सभी संविग्न-गीतार्थ आचार्य मिलकर सर्वानुमति से अथवा सर्वानुमति संभव न हो सके तब बहुमति से जो निर्णय करें वह रहस्यार्थ-तात्पर्यार्थ सकल श्री संघ में मान्य होता है । श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ के अनेक पूर्वाचार्यों ने साथ मिलकर समय समय पर पट्टक के द्वारा श्री संघ को आदेश या निर्णय दिये ही हैं कि - "भगवान श्री जिनेश्वर देव से संबंधित चढ़ावे का द्रव्य, आरति तथा अष्टप्रकारी पूजा से संबंधित चढ़ावे का द्रव्य, उपधान की माला से संबंधित द्रव्य, तीर्थमाला की उछामणी का द्रव्य आदि सब द्रव्य देवद्रव्य कहलाता है तथा उसका उपयोग भगवान श्री जिनेश्वर देव से संबंधित सभी कार्यो में अर्थात् जिनालय के जिर्णोद्धार में, नूतन जिनालय के निर्माण में, भगवान के आभूषण निर्माण
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