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में शास्त्रोक्त रीति से स्वच्छ-सुंदर प्रबंध हो रहा है । वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेश्वरदेव के भक्त जैन श्रावक-श्राविकाओं की उदारता को भी अपार धन्यावाद है कि वे उपकारी जिनेश्वरदेव के चरणों में कृतज्ञता की भावना के साथ अंजनशलाका, प्रतिष्ठा आदि की बोलियों के द्वारा, स्वप्नों की, पालना आदि की बोलियों के द्वारा जिनालय निर्माण के द्वारा, जिनमूर्ति के निर्माण में, उपधान की माला पहनने में, तीर्थमाल पहनने में एवं भंडार आदि में उदारतापूर्वक बड़ी मात्रा में धन समर्पित करते हैं । और इसी वज़ह से श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनों के जिनालयों में सुंदरता-स्वच्छता एवं भक्तिमय प्रसन्न वातावरण अधिक देखने को मिलता है । जैनेतर लोग भी आनंदित होकर बोल उठते हैं - श्वेतांबर जैन मंदिर वास्तव में अत्यंत सुंदर होते हैं... इत्यादि ।
दूसरी ओर - आज के आधुनिकता के रंग में रंगे हुए, भौतिकवादी तथा शास्त्रकथित नियमों से अनजान (अथवा बुद्धि एवं क्षमता होते हुए भी जो जानना ही नहीं चाहते हैं ऐसे) कुछ जैन-श्रावक ही देवद्रव्य के विषय में मनगढंत बातें कर रहे हैं कि भगवान संबंधित धन - देवद्रव्य से गरीब जैन-साधर्मिकों का उद्धार करना चाहिए । देवद्रव्य का उपयोग स्कूल-कालेज, अस्पताल आदि के निर्माण कार्य में करना चाहिए, इत्यादि और कहीं कहीं संघ के प्रबंधकर्ता ट्रस्टी लोग देवद्रव्य का इस प्रकार दुरुपयोग करने भी लग गये हैं । यह बात अत्यंत खेदजनक है।
अजैन शास्त्रों में नरक के चार मार्ग कहे हैं जो इस प्रकार हैं- (१) रात्रिभोजन (२) परस्त्रीगमन (३) बोल अचार (अथवा मांसाहार) और (४) कंदमूल भक्षण ।
लौकिक वेदशास्त्र में दूसरे ढंग से चार महापाप कहे हैं, जैसे कि (१) ब्रह्महत्या (२) स्त्रीहत्या (३) भृण हत्या (गर्भ गिराना) (४) गौहत्या ।
लोकोत्तर महान जैन शास्त्र में चार महाभयंकर पाप इस प्रकार बताये हैं । जैसे कि -
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