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________________ चेइयदव्व विणासे, रिसिघाए, पवयणस्स उड्डाहे, संजइ चउत्थ भंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥ अर्थ :(१) चैत्यद्रव्य अर्थात् देवद्रव्य का नाश करना ( २ ) साधु की हत्या करना ( ३ ) जैन शासन की हिलना करना (४) साध्वी के साथ दुराचार करना । इन चार महापापों से बोधिबीज जल जाता है । यद्यपि प्रायः कोई भी प्रबंधकर्ता ट्रस्टी या जैन व्यक्ति आदि प्रत्यक्ष रूप में भगवान संबंधित धन- देवद्रव्य अपने घर ले नहीं जाते या अपने घर में उपयोग नहीं करते, अतः इस अर्थ में कोई जैन श्रावक प्रत्यक्ष रूप से सामान्यतः देवद्रव्य का भक्षण नहीं करते, परंतु देवद्रव्य जिनालय - जिनमूर्ति, मूर्तिपूजा की सामग्री की व्यवस्था, निभाव आदि को छोड़कर साधर्मिक भक्ति पाठशाला, उपाश्रय-धर्मशाला आदि में खर्च करना अथवा तो स्कूल-कालेजअस्पताल आदि में खर्च करना यह सब देवद्रव्य का भक्षण स्वरूप ही है । और आज के भौतिकवाद के युग में कहीं, कोई जैन श्रावक - ट्रस्टी आदि देवद्रव्य के विषय में इस प्रकार सोचते भी हैं । तो कई जैन गृहस्थ ऐसा भी बोलते हैं कि स्वप्नों की बोली तो साधारण खाते में ले जानी चाहिए जिससे उस द्रव्य से उपाश्रय, धर्मशाला, पाठशाला आदि का निर्माण किया जा सके या उसका संचालन हो सके अथवा तो संघ के दुःखी जैन साधर्मिकों की भक्ति आदि कार्य किये जाय तो कोई हर्ज़ नहीं है क्यों कि स्वप्न तो त्रिशलामाता ने देखे थे और उस समय भगवान महावीर गर्भ में बालक के रूप में थे । भगवान तब तीर्थंकर नहीं बने थे । परंतु, इस प्रकार सोचना यह तो देवद्रव्य के प्रति कुदृष्टि करने समान है, क्योंकि त्रिशलामाता ने स्वप्नदर्शन नंदीवर्धन कुमार जब पेट में थे तब तो नहीं किया था, जब भगवान वर्धमानकुमार - महावीरकुमार गर्भ में आये, तब ही किया था । माता ने जो स्वप्न देखे उसमें प्रभाव तो भगवान का ही था । तदुपरांत भगवान तो सभी अवस्थाओं में भगवान ही हैं । अतः भगवान से संबंधित स्वप्नों की यह बोली का द्रव्य देवद्रव्य ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
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