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उस दान तथा पुण्य के प्रभाव से हे राजन् ! तुम अपने रूप के कारण कामदेव को भी पराजित करनेवाले, सुंदर अंगोपांगवाले नाभाक नामक राजा बने । राजा चंद्रादित्य ने भी सुंदर जिनालय का निर्माण करवाकर अपने पापों को प्रायश्चित से शुद्ध किया । इस प्रकार पवित्र बनकर वह प्रथम सौधर्म देवलोक में देव बना ।
राजन् ! उसी भव में वहीं पर तुमने मूर्तिमान पुण्यस्वरूप जिनमंदिर को गिराकर उस स्थान पर नगर के आसपास किला बनवाया था, तदुपरांत पूर्व में तुमने ब्राह्मण - स्त्री - बालक- गाय तथा तीर्थ की हत्या की थी । ये पाँच हत्याएँ तुम्हारे सर्व पुण्यों में अंतराय का कारण है । उसमें भी यात्रा में तुम्हें जो विघ्न आये वे तो तीर्थ के नाश का ही फल है । अतः उन विघ्नों को दूर करने हेतु जो प्रायश्चित है उसे तुम सुनो ।
श्री ऋषभदेव भगवान के शासन में प्रथम सर्वोत्कृष्ट तप बारह मास का, वर्तमान में श्री अजितनाथ से श्री पार्श्वनाथ भगवान के शासन में आठ मास का तथा श्री महावीर भगवान के शासन में छ: मास का बताया गया है । सर्वोत्कृष्ट तप प्रायश्चित भी उसी प्रकार उस शासन - विशेष में जानना । विशेष में तीर्थनाश के पाप की शुद्धि तीर्थनिर्माण के द्वारा होती है । विशिष्ट अभिग्रहवाले जो भव्य जीवो शत्रुंजय आदि तीर्थों पर उपरोक्त रीति से प्रायश्चित तप का आचरण करते हैं वे समस्त पापों से सदा के लिए सर्वथा मुक्त होते हैं ।
अंतराय कर्मों का क्षय किस प्रकार ? :- श्री युगंधर सुरिवर के मुख से यह अमृतमय उपदेश सुनकर नाभाक राजा हर्षित हुआ । उसने अपने नगर के उस किले में प्रवेश न करने का नियम ग्रहण किया, जिसे जिनालय को गिराकर बनाया गया था । जिस स्थान पर उसे मुनिवर का समागम प्राप्त हुआ था उसी
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