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________________ स्थान पर उसने नगर की समस्त प्रजा को बुलाकर नया नगर बसाया । वहाँ गुरुवर को बिराजमान कराके उसने गुरुदेव के पास निम्नानुसार नियम ग्रहण किये । ___-जब तक श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा करके वापस न आऊँ तब तक मैं भूमि-संथारा करूँगा अर्थात् शयन भूमि पर ही करूँगा । -मैंने तीर्थ हत्या (तीर्थनाश) ब्रह्महत्या तथा बालहत्या की है । उन हत्याओं के पाप की शुद्धि हेतु मैं क्रमानुसार अब्रह्म, दहीभक्षण तथा दूधभक्षण का त्याग करता हूँ । स्त्रीहत्या तथा गौहत्या के पाप की मुक्ति हेतु मैं आज से आजीवन परस्त्रीगमन तथा मद्य-माँस का त्याग करता हूँ ।। तत्पश्चात् राजा ने नये जिनमंदिर के निर्माण हेतु कारीगरों आदि की नियुक्ति की । गुरु के सदुपदेश से उसने एकांतर उपवास से आठ मास के उपवास का तप आरंभ किया । आठ मास में जिनमंदिर का निर्माणकार्य पूर्ण हुआ । वहाँ उसने महोत्सवपूर्वक कांचमनयी श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा की स्थापना की । शेष तप उसने तीन काल श्री जिनेश्वरदेव की पूजापूर्वक पूर्ण किया । इस प्रकार तीर्थनाश के पाप से मुक्त होकर राजाने शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में श्री संघ, गुरुओं तथा अपनी सेना के साथ भरत चक्रवर्ती की तरह आडंबरपूर्वक श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा हेतु प्रयाण किया । प्रथम प्रयाण के समय मार्ग में चार बिल्लियाँ रास्ता काटकर निकल गई । राजा ने गुरुजनों को इसका फल पूछा। गुरुजनों ने बताया, "बालादि हत्याओं का पाप तुम्हारा पुण्यकार्य में अंतराय करने हेतु अपना प्रभाव दिखा रहा है, परंतु कृतनिश्चयी होने के कारण तुम्हारा कार्य अवश्य पूर्ण होगा ।" गुरुओं की बात को मन में अवधारण कर, भगवान आदिनाथ के स्मरण में एकचित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
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