SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ होकर निरंतर यात्रा करता हुआ राजा श्री शत्रुंजय तीर्थ के निकट आ पहुँचा । श्री शत्रुंजय चक्षुओं से दृश्यमान होने पर राजा ने सेना को एक स्थान पर रोक दिया । स्वयं स्नानादि से पवित्र होकर सिंहासन पर श्री अरिहंतदेव की प्रतिमाजी को स्थापित कर सकल श्रीसंघ के साथ उसने आडंबरपूर्वक स्नात्र महोत्सव किया तथा पूजा के तमाम भेद अर्थात् सभी प्रकारों से प्रभु की पूजा की । तत्पश्चात् रत्नजडीत थाल में सुवर्ण एवं चांदी के यव से प्रभुजी समक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त, मत्स्ययुगल, दर्पण, श्रीवत्स आदि अष्टमंगल आलेखित करके आनंद एवं प्रसन्नतापूर्वक श्री जिनेश्वरदेव की १०८ सार्थक शब्दयुक्त श्लोकों से भाव-भक्ति - श्रद्धा सहित स्तुति की । नमुत्थुणं अर्थात् शक्रस्तव से श्री सिद्धाचल तीर्थाधिराज को वंदना की, सद्गुरुओं को नमन करके स्वर्ण-मणि - रत्न- मोतियों से उनका सन्मान किया । याचकों को यथेच्छ दान देकर संतुष्ट किया तो समस्त जनता को मिष्टान्न भोजन आदि से संतुष्टि प्रदान की विशेषतः साधर्मिकों को । मार्ग पर चलते हुए राजा एवं अन्य लोग - सारा समुदाय पहुँचे श्री शत्रुंजय गिरिराज की तराई तक । गुरुओं के पीछे श्री तीर्थाधिराज पर चढ़ रहा राजा मानों मुक्तिमहल के हेतु प्रस्थान कर रहा हो ऐसा शोभायमान हो रहा था । प्रथम बार जिनवर प्रासाद के दर्शन के समय अपूर्व महोत्सवपूर्वक याचकों को यथेच्छ दान दे रहा राजा मानों कल्पवृक्ष के समान दानेश्वरी बना था । उसने आठ दिन तक संघपति श्री जिनेश्वर का भक्ति महोत्सव मनाया और जिनेश्वर स्नात्र, पूजा, ध्वजारोपण, अमारी - प्रवर्तन, साधर्मिक - भक्ति आदि श्री संघपति (श्री संघ जिसका पति है) के सर्व धर्म अत्यंत सुंदर रीति से पूर्ण किये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy