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सत्कार्यों के द्वारा देवद्रव्य का वह आधा निधान सुंदर रीति से खर्च कर दिया । इसका नाम है न्याय-नीतिमत्ता ।
अब सिद्धक्षेत्रादि से ऊतरकर जब राजा समुद्रपाल नगर में प्रवेश कर रहा था तब 'यह वणिक और राजा बना ?' ऐसी असहिष्णुता के कारण अन्य दुष्ट राजाओं ने उसे घेर लिया । दोनों सैन्यों का आपस में युद्ध आरंभ हुआ । अपनी सेना पराजित हो गई ऐसा सोचकर श्री समुद्रपाल राजा 'अब क्या किया जाये ?' ऐसे असमंजस में था उसी समय दृढ़ बंधनों में बद्ध, अंजलि जोड़े हुए, 'हमें बचाइये-हमें बचाइये' ऐसी विनंति करते हुए, अपने चरणों में नत उन विद्रोही राजाओं को उसके सेवकों ने वहाँ खड़ा किया । उन्हें बंधनमुक्त किया गया । आश्चर्यपूर्वक राजा समुद्रपाल ने 'यह क्या हुआ ?' ऐसा प्रश्न उन राजाओं से ही किया तो उन्होंने कहा, "हम और तो कुछ नहीं जानते हैं, परंतु दुर्बुद्धि से संग्राम में लड़ते हुए हम स्वयं ही बंध गये थे और आपकी कृपा से ही अब बंधनमुक्त हुए हैं इसमें कोई शक नहीं है । अतः आप हमें जीवनपर्यंत आपके सेवकों के रूप में स्वीकार करें ।" रक्षित धर्म रक्षा करता ही है यह बात सत्य सिद्ध हुई । सेवक बने हुए उन राजाओं से परिवरित राजा समुद्रपाल ने आडंबरपूर्वक अपनी नगरी में प्रवेश किया । राज्यसभा में अपने कार्याधिकारियों को सर्व विगत बताकर समुद्रपाल राजा ने उन सेवक राजाओं को सत्कारपूर्वक जाने की अनुमति दी । सज्जनों का क्रोध प्रणाम तक ही टिकता है ।
। तत्पश्चात् राजमंदिर में जाकर उसने जिनदेवों की पूजा की । इसके बाद उसने अपने सन्मुख एक व्यंतरदेव को खड़ा हुआ देखा। राजा ने उससे पूछा, "तू कौन है ?" तब वह व्यंतरदेव बोला,
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