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________________ "राजन् ! पूर्व भव में मैं तामलिप्ति नगर का निवासी नाग नामक कौटुंबिक था । मेरे पूर्वजों ने सुंदर जिनमंदिर बनवाया था । उसका वहिवट मैं किया करता था, परंतु दुर्बुद्धि ऐसा मैं देवद्रव्य से ही मेरे परिवार का पालन करता था । इसके परिणाम स्वरूप मेरा समस्त परिवार नष्ट हो गया ।" एक बार एक नैमित्तिक के पास से सुना कि देवद्रव्य के उपभोग से कुटुंब का क्षय होता है । यह सुनकर मैं डर गया । देवद्रव्य की चोरी का यह भयंकर दुष्ट कर्म मैंने तत्काल छोड़ दिया । उस समय मेरे पास देव संबंधी चौबीस हजार दीनार का जो द्रव्य था उसे मैंने 'यह देवद्रव्य है' ऐसे लेखवाले धातुपत्र सहित भूमि में गाड़ दिया । इसके पश्चात् यथोचित कार्य के द्वारा मैं मेरा जीवन चलाता था । अंत में जब मैं व्याधिग्रस्त हुआ तब एक रात मैंने पडोसिन वृद्धा के मुख से कोमल स्वर से बोला जा रहा शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य सुना । उसके श्रवण में जब मैं एकाग्र था तभी मेरा जीवन पूर्ण हुआ । मृत्यु के बाद श्री शत्रुजय के ध्यान के कारण मैं यहाँ शत्रुजय गिरिराज पर व्यंतर देव बना हूँ । वहाँ देवपूजा के समय आपने मेरा नाम लिया इसलिए और मुझे मेरा पूर्व भव का वृत्तांत याद आया इसलिए आनंदित होकर मैंने सोचा, "राजन् ! आपने बहुत अच्छा किया कि देवद्रव्य का देवपूजन में खर्च किया । इसलिए 'आप जैसे सत्पुरुष के लिए मैं कुछ करूँ' ऐसा सोचकर मैं यहाँ आया हूँ । आपका राज्य हड़प लेने की दुष्ट इच्छावाले उन दुष्ट राजाओं को मैंने ही बंधन में डाला था और उस प्रकार आपके लिए सहायरूप बना था, परंतु स्मरण रहे कि मेरी शक्ति अल्प है और उसी वजह से यहाँ से दूसरे स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
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