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प्रभुश्री ऋषभदेव के पवित्र नाम को जो भव्य जीव हृदय में धारण करता है उसे क्लेश का अंश भी पीडादायक नहीं होता । प्रभु द्वारा स्थापित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग पर जो भव्य जीव प्रसन्नतापूर्वक चलता है वह कभी चार गतिरूप या विषय-कषायरूप संसार में फंसता नहीं है । वह मुक्ति प्राप्त करता
है ।
इस जगत में श्री शत्रुजय से बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है, उससे अधिक कोई वंदनीय नहीं है, उससे अधिक कोई पूजनीय नहीं है, उससे बढकर कोई ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य वस्तु नहीं है ।
अन्य दर्शन के ग्रंथो में भी कहा गया है कि :- इस गिरिवर-मूल में विस्तार पचास योजन, शिखर पर विस्तार दस योजन तथा ऊँचाई आठ योजन प्रमाण है । भागवत में बताया गया है कि :- शत्रुजय तीर्थ के दर्शन करने से रैवताचल (गिरनार पर्वत) की स्पर्शना करने से तथा गजपदकुंड में स्नान करने से भव्यजीव अजन्मा बन जाता है अर्थात् उसका मोक्ष हो जाता है । नागपुराण कहता है :- अडसठ तीर्थों की यात्रा करने से जो लाभ हो अर्थात् फल प्राप्त हो उतना फल श्री शत्रुजय तीर्थेश के दर्शनमात्र से प्राप्त होता है । तीर्थमाला स्तव कहता है :- अतः हे पृथ्वीपति ! हे राजन् ! उत्तम मनुष्यजन्म तथा भरतक्षेत्र की भूमि को पाकर विवेकी आत्माओं को युगादिदेव की महान यात्रा के द्वारा लक्ष्मी का लाभ प्राप्त करना चाहिए ।
___ इस प्रकार धनाढ्य नामक उस शेठ ने नाभाक राजा के समक्ष श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज का वर्णन किया । धर्मप्रिय राजा ने तीर्थ का ऐसा अद्भूत माहात्म्य सुना तो उसका मनमयूर नाच उठा। उसने सेठ को औचित्यपूर्वक बिदा देकर शत्रुजय तीर्थ की यात्रा
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