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इस तीर्थाधिराज के तीन शाश्वत नाम हैं : (१) शत्रुजय (२) श्री विमलाद्रि तथा (३) श्री सिद्धक्षेत्र और तुम यहाँ आओगे तथा सिद्धगति को प्राप्त करोगे तब उसका चौथा नाम श्री पुंडरीक होगा। इस शत्रुजय गिरिवर की सुंदर रीति से सेवा करनेवाले के समस्त पाप सर्वथा नष्ट होते हैं । क्या भूमि के प्रभाव से मिट्टी भी रत्नत्व को प्राप्त नहीं करती ? करती ही है । जो भव्य जीव इस गिरिराज के शुभभाव से कभी भी दर्शन करते हैं वे नरक या तिर्यंच गति में तो उत्पन्न होते ही नहीं है, बल्कि मनुष्यगति तथा देवगतिरूप उसका संसार भी सर्वदा बंद हो जाता है अर्थात् वे पंचमी गति-मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।।
वीतराग, सर्वज्ञ, त्रिभुवनभानु, परमगुरु श्रीमद् युगादीश के ऐसे अमूल्य वचन सुनकर श्री पुंडरीक गणधर आदि मुनीन्द्र अत्यंत आनंदित हुए । पाँच करोड मुनिवरों के साथ श्री पुंडरीक गणधर महाराज ने इस तीर्थ की सुंदर उपासना की और क्रमेण उन सब ने मोक्ष प्राप्त किया । वे जन्म-जरा-मृत्य-आधि-व्याधि-उपाधि से सर्वदा मुक्त बने । एक लक्ष पूर्व का सुंदर चारित्र पालन कर कुल चौरासी लाख पूर्व के आयुष्य के क्षय बाद प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव अष्टापद गिरिवर पर से मोक्ष गये । प्रभु के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती ने इस श्री शत्रुजय तीर्थ पर अति सुंदर सुवर्ण प्रासाद बनवाया तथा उसमें रत्नों से बनाई हुई पाँचसौ धनुष्य की प्रभुश्री आदिदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की ।।
देखिए, जैन कविवर क्या कहते हैं ? :
शत्रुजी नदीए नाही, कष्टे सुर सान्निध्यदायी, पणसय चाप गूहा ठाई... विवेकी विमलाचलवसीए, रयणमय पडिमा जे पूजे तेहना पातिकडा ध्रुजे,
ते नर सीझे भव त्रीजे... विवेकी०
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