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श्री शत्रुजय तीर्थ महिमा यहाँ भरतक्षेत्र में प्राचीन काल में श्री नाभि नाम के कुलकर हो गये । मरुदेवा नामक उनकी अत्यंत प्रिय सुशीला पत्नी थीं । उनकी रत्नकुक्षी से जिनेश्वर श्री ऋषभदेव का जन्म हुआ । उस समय के काल के प्रभाव के कारण असंख्य काल से मानवजाति धर्म तथा कर्म से नितांत अनभिज्ञ थी । श्री ऋषभदेव ने उन्हें कर्म का एवं धर्म का ऐसे दोनों मार्ग बताये । इस क्षेत्र में जन्मे हुए उन्होंने भाई-बहन के विवाह आदि अनीति के पंथ का निवारण करवाया तथा न्याय पंथ की स्थापना की । उस समय के सर्व प्रथम राजा की ऋषभ ने सुनंदा तथा सुमंगला नामक दो कन्याओं के साथ विवाह किया था । उनके साथ सांसारिक सुखों को भोगते हुए उन्हें सौ पुत्र प्राप्त हे थे । अपने सौ पुत्रों में अपने राज्य का विभाजन कर के उन्हें अलग अलग देश के राजा बना कर उन्होंने मुनिदीक्षा ली और घोर तपस्या की । सुंदर साधना के द्वारा वे वीतराग तथा केवलज्ञानी बने । सर्वज्ञ ऐसे उन दयामय प्रभु ने भरतक्षेत्र के भव्यजीवों को क्षमा-नम्रतादिरूप दसविध यतिधर्म का उपदेश दिया। __ ये परमतारक देवाधिदेव निन्यानवे पूर्व बार सौराष्ट्र देश के अलंकार श्री शत्रुजय गिरिराज पर पधारे थे । यहाँ रायण के वृक्ष के नीचे उनके समवसरण मंडित हुए थे । यहां उन्होंने योजनगामिनी सुमधुर वाणी बहाई थी । एकदा प्रभु ने अपने सर्वप्रथम गणधर श्री पुंडरीकस्वामी को संबोधित करते हुए कहा, "हे गणधर ! यह श्री गिरिराज अनादि अनंतकालीन अर्थात् प्रायः शाश्वत है, हाँ, काल के प्रभाव से उसमें संकोच-विकोच अवश्य होगा । वर्तमान में (श्री ऋषभदेवस्वामी के समय में)" उसका विस्तार पचास योजन का, शिखर पर का विस्तार दस योजन का तथा उसकी ऊँचाई आठ योजन की है । काल के प्रभाव से क्रमसर हानि होने से सात हाथ का हो कर पुनः इस प्रकार की वृद्धि को प्राप्त करेगा ।
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