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________________ यदि ज्ञानखाता आदि खातों की रकम देवद्रव्य के खाते में ली जाती ही हो तो फिर ज्ञानखाता अलग खाते के रूप में रहेगा ही नहीं। लेकिन शास्त्रकारों ने ज्ञानखाते को अलग खाते के रूप में ही मान्य किया है । तदुपरांत, देवद्रव्य में देने से लाभ अधिक प्राप्त होता है, अन्य खाते में देने से लाभ कम होता है ऐसा मानना भी अनुचित है। विवेकवान श्रावक को सभी खातों का ध्यान रखना चाहिए, विशेष कर जिस खाते में अधिक आवश्यकता हो, जिस खाते में धन की कमी हो वहाँ पहले देना चाहिए । एक माता अपने बीमार या कमज़ोर बालक का ध्यान अधिक रखती है, उसी प्रकार-अथवा किसान कुँए में से पानी निकालने के बाद सभी आवश्यकतामंद फसल को पहुँचाता है उसी प्रकार । अतः समझदार तथा उदार श्रावकों को पाठशाला, वैयावच्च, साधर्मिक भक्ति आदि छोटे खातों को सहन न करना पड़े इसका ध्यान रखना चाहिए । __ जिस प्रकार कुछेक जैनों की देवद्रव्य के विषय में नियत अच्छी नहीं है, उस प्रकार सरकार भी कानून के बल पर जैनसंघो के पास से देवद्रव्य हड़प ले ऐसी परिस्थिति निर्मित हो रही है । इन सभी बातों पर विचार करते हुए ट्रस्टी लोग, संघ के स्तंभरूप सज्जन, प्रबंधक महानुभाव तथा उदार हृदय से धन खर्च करनेवाले जैन अच्छी तरह से सोचें और देवद्रव्य का शास्त्रीय रीति से प्रबंध करें - उपयोग करते रहें वही जिनभक्ति का श्रेष्ठ उपाय है - श्रेष्ठ मार्ग है। हम सब नाभाकराज चरित्र कथा पढ़कर देवद्रव्य के रक्षणकर्ता बनकर कैवल्यलक्ष्मी के भागी बनें इसी शुभेच्छा के साथ... । इस लेख में जिनाज्ञा विरुद्ध अगर कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडम् । वि.सं. २०६२ प्रात:स्मरणीय पूज्यपाद गुरुदेव फागुन शुक्ला १५ श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य इर्ला ब्रीज, मुंबई पंन्यास भुवनसुंदरविजयजी गणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
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