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________________ ११ 'यह देवद्रव्य तो हमारे संघ का है । हमने जिनालय निर्मित किया तब हम पैसे इकट्ठे करने हेतु कहीं बाहर गये नहीं हैं । हम लोगों ने ही मिलकर हमारे पैसों से मंदिर का निर्माण किया है । इसलिए हमारे जिनमंदिर में आया हुआ देवद्रव्य हमारा (हमारे संघ का) है । तो फिर दूसरे संघ में आवश्यकता हो तो भी हम क्यों दें ?' ऐसा विचार-वचन या प्रवृत्ति भी जिनभक्ति में अंतराय करने जैसा है। उसी तरह गलत ममत्वभाव से देव आदि का धन बैंक आदि में रखे रहना भी अनुचित है, क्योंकि वर्तमान समय में परिस्थिति ऐसी है कि जिस दर से महँगाई बढ़ती जा रही है उस दर से व्याज के दर नहीं बढ़ रहे हैं, बल्कि व्याज के दर कम हो रहे हैं । इसलिए रुपये की खरीदशक्ति दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है । तदुपरांत वर्तमान परिस्थिति में जैन श्रावकों को व्याज पर देने में भी देवद्रव्य के नाश का जोखिम है । तथा कई बार आवश्यकता पड़ने पर समय पर पैसे न मिलने का अथवा पार्टी के उठ जाने का जोखिम-अनर्थ होने की संभावना भी रहती है। इसके साथ साथ अपने अपने संघ में देवद्रव्य की वृद्धि हुई है परंतु मोहवश बाहर के अन्य संघो को देना न पड़े ऐसा सोचकर संघ के नेता या ट्रस्टीगण अपने ही जिनमंदिर में चांदी के भंडार, चांदी के दरवाजे, मंदिर के बाहर के अनावश्यक गेट आदि बनवाने में, सोनेचाँदी के मुगट या खोले के दो-तीन सेट बनवाने में देवद्रव्य खर्च कर दें, परंतु बाहर देने की उदारता न दिखायें यह भी अनुचित हैं ।। तदुपरांत, कहीं कहीं कुछ जैनों में ऐसी बात भी चलती है नीचे के खाते की रकम उपर के खाते में ली जा सकती है, अर्थात् ज्ञानद्रव्य की रकम देवद्रव्य में ली जा सकती है । लेकिन यह बात उचित नहीं है । पुत्री का धन पिता कभी नहीं लेगा । हाँ, कभी तकलीफ में फँसा हुआ पिता पुत्री की रकम ले तो भी वापस दे देगा । उसी प्रकार ज्ञानखाते में से देवद्रव्य में कभी कुछ रकम ली हो तो भी यह ज्ञानखाते में वापस देने की शर्त के साथ लोन के रूप में लेनी चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
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