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प्रासाद में उसने अनेकविध सुंदर, विचित्र रूपवाली, श्रेष्ठ प्रकार के शृंगार से सज्ज, हरिणी के समान अति सुंदर नेत्रोंवाली, विलास कर रही रमणियों को देखा । उनके बीच से हंसी के समान सुंदर गतिवाली उनकी स्वामिनी सामने आई और राजा सन्मुख खडी रहकर दोनों हाथों की अंजलि जोड़कर इस प्रकार बोली, " हे सुंदर गुणों के महासागर ! आपका स्वागत हो ! स्वागत हो ! हमारे सद्भाग्य के उदय से ही आप का आगमन यहाँ हुआ है । यह हमारा स्त्रियों का राज्य है । जो पुण्यवान पुरुष यहाँ आता है वही हमारा स्वामिनाथ है ऐसा आप समझें ।"
नाभाक राजा ने यह सुना । ' यह नया संकट अब कहाँ से आ पड़ा ।' ऐसा वह सोचने लगा... 'यहाँ वाणी से मौन रखना ही श्रेयस्कर है । कहते हैं कि मौन सर्व प्रयोजनों को साधने में सहायक बनता है ।' राजा मौन खड़ा रहा तो मुख्य स्त्री के द्वारा आदेश पाकर दूसरी स्त्रियाँ भी स्नान तथा भोजन आदि की सामग्री तैयार करके उपस्थित हुई । वे बोलीं, " हे प्राणनाथ ! हम पर कृपा करके शीघ्र स्नान करें, यथारुचि भोजन करें तथा जीवन पर्यंत हमारे साथ मनोहर भोगों और उपभोग करें ! यहाँ आपको किसीसे किसी प्रकार का भय नहीं है । यह शीतल जल, यह शर्करामिश्रित द्राक्ष का रस, ये मीठे घेवर, यह घी युक्त खीर आदि का उपभोग कीजिये ।" इस प्रकार प्रथम उन स्त्रियों ने अनुकूल उपसर्ग और बाद में प्रतिकूल उपसर्ग भी किये ।
चित्त को विचलित किये बिना राजा तो धर्ममार्ग में ही स्थिर रहा । इतने में उसने अपने आप को श्री शत्रुंजय गिरिराज के शिखर पर स्थित देखा । " यह क्या हुआ ?" राजा आश्चर्यचकित हुआ । उसी समय सुगंध से आकृष्ट भ्रमरों की पंक्तियों से युक्त पुष्पों की वृष्टि उसके मस्तक पर देवताओं ने की । राजा के समक्ष
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