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हर तरह के प्राणी से निर्वाह करनेवाला ब्राह्मिन को चाण्डाल बताया गया है । (सुभाषित पद्यरत्नाकर)
(४) तेरे दुःख का कर्ता तू स्वयं ही जैन कविप्रवर कहते हैं : "सुखदुःख कारण जीवने कोई अवर न होय, कर्म आप जे आचाँ, भोगवीए सोय ।" अर्थात् जीव के सुखदुःख के लिए कारणरूप कोई अन्य नहीं होता। जो कर्म स्वयं किये हैं उसे स्वयं ही भोगना होता है । सभी जीव पूर्वकृत कर्म के फल का - विपाक का अनुभव करता है, अपना जो कुछ भी बुरा होता है उसमें जीव स्वयं ही कारणरूप होता है ।। प्रत्येक जीव को पूर्वकृत दुष्कर्म ही नि:शंक दु:खों के कारणरूप बनता है । कोई किसी को दुःख देता है ऐसा निर्णय करना या विचार करना गलत है । जीव स्वयं के उपार्जित कर्म का फल ही स्वयं भोग रहा है । जो उपार्जित नहीं किया है ऐसा कर्म कौन भोगता है ? कोई नहीं । स्वयं का ही उपार्जित कर्म, बिना फल दिये किसका क्षय हुआ है ? किसीका भी नहीं । तो फिर स्वयं के ही बांधे हुए कर्मों को भोगते समय जीव दुःखी किसलिए होता है ? सभी जीव कर्मबंधन स्वयं ही करते हैं, परंतु उन कर्मों के उदय-विपाक के समय पराधीन बन जाते हैं । (इसीलिए कर्म के बंध समय ही सावधान रहो ! कर्म के उदय के समय किसी अन्य व्यक्ति को दोष देना बंध करो ।)
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