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अन्यथा सुकृतं तन्वन् स्वजनः स्वजनाख्याय । व्यवहार-प्रीतिभक्ती-रेव ज्ञापयति ध्रुवम् ॥१०॥ (पापद्रव्यस्य दुष्टता) पापद्रव्येण यत्पापेषु एव बुद्धिः प्रजायते ॥११२॥ (पापस्य दुष्टता) न हि श्रेयोऽतिपापिनाम् ॥११४॥ (देवद्रव्य विनाशफलं) ततो निपतितो घोर-संसारे दुःखसागरे । देवद्रव्यविनाशस्य ज्ञेयं सर्वमिदंफलम् ॥१२१॥ अन्यायात्स्वल्पदेवस्य-भक्षणादपि यदभूत् शैवः श्रेष्ठी सप्तकृत्वः श्वातो वै त्याज्यमेव तत् ॥१२२॥ देवद्रव्यमयैः पूजावशिष्टैश्चन्दनैर्वपुः । विलिप्याकाण्ठमाछाद्य वाससा पर्यटत्यसौ ॥१४०॥ ऋषिहत्या महापापं तत्कालं स्यात्फलप्रदम् ॥१४५ ॥ दुष्टं कुष्टं भवद्देहेऽभवद्देवविलेपनात् ॥१६४॥ न पूर्वकृतकर्मतः विमुच्येत क्वचित्कोऽपि ॥२६२॥
+ [श्री अजितनाथस्वामी जब गृहस्थ अवस्था में थे तब] स्वामीने
अच्छी तरह से स्नान किया, दिव्य आभूषणों तथा वस्त्रों का परिधान किया, अपने राजमहेल में रहे श्री गृहजैनमंदिर में बिराजमान श्री अरिहंत परमात्मा की प्रतिमाओं की पूजा की । [श्री शत्रुजय
माहात्म्य] है इस भरतक्षेत्र में मिथ्यादृष्टिवाले जीवों पैकी कतिपय जीवों यहाँ
मनुष्य का आयुष्य पूर्ण करके भद्रक परिणामी होने से श्री महाविदेहक्षेत्र में मानवजन्म पाकर आयुष्य की नौमी साल में
केवलज्ञानवाले बनेंगे । अहो भद्रक परिणाम का लाभ ? + एक दिन में देवलोक में से आयुष्य की पूर्णाहूति होने पर जितने
देवों का च्यवन होता है इतनी संख्या में भी मनुष्यों तो नहीं है, इसलिए 'मुझ को मनुष्य बनने का सौभाग्य कैसे मिलेगा' ऐसा सोचने पर देवों दु:खी होते है ।
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