Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 49
________________ ४८ प्रयत्न किया था । तुम्हें सोपान पर से धक्का देनेवाला वृद्ध पुरुष अर्थात् वही तुम्हारा अंतराय कर्म है ऐसा समझो । उस नाग का जीव भी पूर्व काल में चंद्रादित्य राजा के भव में विद्यमान कर्मों का क्षय करके सौधर्म देवलोक में देव बना है और अब वह यहाँ आया है ।" वह देव तथा नाभाक राजा ने अपने पूर्वभव के चरित्र श्री सीमंधर स्वामी के पास सुना, पश्चात् प्रीतिमय बने हुए वे दोनों प्रभु को प्रणाम करके वहाँ से शत्रुजय गिरिवर पर गये । वहाँ श्री शत्रुजय पर्वत पर उन दोनों ने (नाभाकराजा तथा चंद्रादित्यदेव ने) श्री आदिनाथ स्वामी का स्नात्र-पूजा महोत्सव किया, तीन अट्ठाई (=आठ-आठ दिन) महोत्सवपूर्वक प्रभुजी की सुंदर भक्ति करके स्वयं को धन्य-कृतकृत्य समझने लगे । तत्पश्चात् भगवान की पूजा सदा-सर्वदा होती रहे इस हेतु से उन दोनों ने प्रभु के सभी अंगों के लिए सुंदर अलंकार बनवाये तथा प्रभु की महापूजा के समय क्रमपूर्वक सभी अलंकारों से प्रभु की सुंदर अंगरचना की । उन दोनों ने जिनभवन हेतु माणेक-रत्न जडित सुवर्ण की धजा प्रदान की और इस प्रकार भक्ति की उत्तम अभंगरंगरीति बताई । इस प्रकार मायारहित उन दोनों ने अति सुंदर प्रभावना के द्वारा सर्वज्ञ के शासन की उन्नति का चिरकालीन विस्तार किया । ऐसा तरणतारण तीर्थ प्राप्त होने के पश्चात् नाभाक राजा का उत्साह अनंतगुणा बढ़ गया । उसकी रोमराजी अति विकसित हुई । उसके बाद वह नाभाक राजा धर्मशाला के स्थान में गया । वहाँ उसने 'जिसे जो चाहिए वह ले जाओ' ऐसी जय-विजयप्रद घोषणापूर्वक कल्पद्रुम को भी लज्जित कर दें उस प्रकार याचकों को अपने धन का खूब खूब दान दिया तथा उसके द्वारा जगत को दारिद्र्यरहित बना दिया । तत्पश्चात् शुभ पुण्य से पवित्र बना हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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