Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 48
________________ ४७ अत्यंत तेजस्वी सुवर्ण के कुंडल धारण किये हुए, जय - जयघोष करता हुआ देव (नाग कुटुम्बी का जीव ) प्रगट हुआ और बोला, " सोधर्म देवलोक में सौधर्म देवेन्द्र ने आपकी सद्धर्म-स्थिरता की प्रशंसा की थी, जिसे मैं जरा भी सहन न कर सका और उसी कारण से मैंने आपके ऊपर इस प्रकार अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्ग किये हैं । हे महाभाग्यवान ! आपको इस प्रकार जो क्लेश मैंने पहुँचाया है उसके लिए मैं क्षमायाचना करता हूँ, मुझे क्षमा करें । आपका धर्मविषयक सत्त्व देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ, अतः वरदान माँगिए ! वरदान माँगिए ।" राजा बोला, " वीतराग - सर्वज्ञ का धर्म मुझे प्राप्त हुआ है अतः मैं और कुछ नहीं माँगता, परंतु इस समय तो मुझे विचरण कर रहे तीर्थंकर देव श्री सीमंधर स्वामी को नमन करने की इच्छा है उसे तुम पूर्ण कर दो ।" देव ने उस बात का स्वीकार किया। तत्पश्चात् देवाधिदेव तथा गुरुदेव को नमन करके सत्त्वाधिक शिरोमणि राजा देवता द्वारा सर्जित ( विकुर्वित) विमान में बैठकर महाविदेहक्षेत्र में पहुँच गया । वहाँ सिंहासन, चामर, भामंडल, तीन छत्र आदि आठ महाप्रातिहार्य की शोभा से और करोड देवों से सेवित त्रिभुवनभानु श्री सीमंधर जिनेश्वर को नमन करके उसने पूछा, "स्वामिन् ! मुझे लंबे समय से धर्म में बार-बार विघ्न आते रहते हैं इसका कारण क्या है ?" पहले युगंधराचार्य ने समुद्रपाल राजा तथा उसका भाई सिंह और नाग कौटुंबिक की जो कथा सुनाई थी वह कथा श्री सीमंधर स्वामी ने राजा को सुनाई । फिर वे बोले, " हे भव्य आत्मन् ! कभी भी कोई भी जीव पूर्वकृत कर्म के उदय से मुक्त नहीं हो सकता । यहाँ तुम्हारा ही दृष्टांत है । तुमने (समुद्र के छोटे भाई) सिंह के भव में बड़े भाई समुद्र को शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा में अंतराय किया था, भाई को राजा के द्वारा रोकने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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