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भी उपवास ही किया । थोड़ी निद्रा प्राप्त कर रात्रि पूर्ण होने पर जब वह जागृत हुआ तो उसने स्वयं को महा अरण्य में पड़ा हुआ पाया । यह कैसा अंतराय आ पड़ा ? ऐसा विचार मन में उठने के बाद उसने पुनः स्वस्थता धारण कर ली । विषाद से क्या लाभ? श्री शत्रुजय तीर्थाधिपति श्री ऋषभदेव भगवान अचिंत्य चिंतामणि स्वरूप हैं । "उनको वंदन करने के बाद ही मैं अन्नजल ग्रहण करूँगा ।" - उसने मन ही मन निश्चय किया । श्री ऋषभदेव प्रभु का स्मरण करते हुए उसने श्री शत्रुजय तीर्थाधिराज की ओर आगे बढ़ना शुरु किया । उसने पाँवों में कुछ पहना नहीं था, कांटे और कंकरो के कारण उसके पाँव लहूलुहान हो गये थे, दीर्घकालीन तपवाला शरीर था, तृषा से वह पीडित था, शरीर थक कर चूर चूर हो गया था, भूख की पीड़ा तो थी ही, मध्याह्न की कड़ी धूप से अत्यंत तप्त बालूवाले मार्ग पर उसका शरीर उपर से एवं नीचे से जल रहा था, फिर भी मन श्रांत नहीं था । उसके मन में ऐसा ही कुछ होगा क्या... ?
गिरिवर दरिसन विरला पावे, पूरव संचित कर्म खपावे... गिरिवर० कांटा आवे कंकर आवे, धोम धखंती रेती आवे, अंतर ना अजवाळे वीरा ! पंथ तारो काप्ये जा...
मध्याह्न के बाद के समय में कोई नवीन स्त्री उसके सन्मुख उपस्थित हुई । उसने राजा के समक्ष सुंदर रुचिकर फलों का थाल
और पीने के लिए निर्मल जल ढौका । सत्त्वशील उस राजा ने न तो फल खाये, या न जल ग्रहण किया । आश्चर्यचकित हृदयवाला वह स्वच्छ निर्मल बुद्धि सहित उस युवती के साथ खूब प्रशंसा के योग्य आकाशव्यापी प्रासाद में पहुँचा ।
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